पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/३७४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
—३४७—

बाल नाच को विलोकि अप्सरी भुलाति हैं।
राग रंग हाव भाव रूप सों लजाति हैं॥
देखि सुन्दरीन के विलास हास वेस को।
भूषनादि जासु खार देख हैं धनेस को॥
अग्नि क्रीड़नादि छूटि छुटि के विलायती।
व्योम बीच मैं बसन्तु बाटिका बनावती॥
अस्त्र शस्त्र भाँति भाँति के जहाँ चमंकते।
छूटि अग्नि बान वज्र नाद से घमंकते।

दोहा


सिविर सकल भूपाल के अलग अलग दरसाहिं।
सकल देस सोभा जहाँ एकहि ठौर लखाहिं॥
एक एक डेरे जिन्हैं हेरे बुद्धि हेराहिं।
जिनकी श्री लखि देव गनहूँ ललचें मन माँहिं॥
तिन सब को सिर मौर जो साम्राज्य दरबार।
हित, महान मण्डप सजो सोभा को आगार॥
भये सुसोभित आय जहँ चुने जगत के लोग।
महराजे, नव्वाब, राजे, राने दै जोग॥
सबै धनी, मानी, गुनी, अतिथि, मित्र अरु इष्ट।
सचिव, दूत, सासक, सुभट, पंडित आदि प्रविष्ट॥
सब से ऊँचे राजसिंहासन वर पर आय।
जाय बिराजे नृपन सों सेवित वाइसराय॥
आज भाग्य उनके सरिस किन पायो जग और।
सम्मानित ऐसो भयो कब को जन किहि ठौर॥

हरिगीती


मन हरन परजन लाट करजन तहँ पुरोहित से बने।
भारत अवनि मन हरनि संग श्रीमान को सुख सों सने॥