पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/३९

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मनहुँ दूलहिन बने काढि चूंघट इतराते।
ढीली परत लगाम पवन बनि दूर दिखाते॥११४॥
जहँ योधागन दिखरावत निज कृपा कुशलता।
अस्त्र शस्त्र अरु शारीरिक बहु भॉति प्रबलता॥११५॥
चटकत चटकी डॉड कह कोउ भरत पैतरे।
लरत लराई कोऊ एक एकन सो अभिरे॥११६॥
होत निसाने बाजी कहुँ लै तुपक गुलेलन।
कोऊ साग बरछीन साधि हॅसि करत कुलेलन।।११७॥
करत केलि तहँ नकुल ससक साही अरु मूषक।
वहै रम्य थल हाय आज लखि परत भयानक॥११८॥
नित जा पै प्रहरी गन गाजत रहे निरन्तर।
वह फाटक सुविशाल सयन करि रह्यो भूमि पर॥११९॥

सवारी

याही मग जब सरदारन की कढत सवारी।
सो निरखी छबि अजहुँ न मन सो जाय बिसारी॥१२०॥
नहि नैमित्तिक बरुक नित्य की बात बतावत।
कोउ कारज बस जबै कोऊ कहुं जात जवावत॥१२१॥
छाय जात लालरी चहूँ चौधी दै लोचन।
लाल बनाती उरदी धारे परिकर जन सन॥१२२॥
चपल पालकी के कँहार, सरबान महाउत।
त्यों मसालची खिदमतगार अनेकन सयुत॥१२३॥
आवश्यक उपकरन लिये असि बगल झुलावत।
कोउ कर पीकदान कोउ के छतुरी छबि छाजत॥१२४॥
कोउ पखा लीने कोउ चंवरी चलत चलावहिं।
जो प्रधान उनमें खवास वह पान खबावहि॥१२५॥
लाल मखमली रुचिर पान को झोरा धारे।
जासो जुरी जजीर रजत बहु लर गर डारे॥१२६॥