लतिका कुंज द्वार पर परदे परे सुमन गुच्छावलि के।
जिसके भीतर जाने को थे वृन्द अनेक अड़े अलि के॥
सजी सजाई सी मजलिस थी शोभा अपनी दरसाती।
जिसे देखते ही बनता था कहने में थी कब आती॥
ऊपर अम्बर का दल बादल नीला तना सुहाता था।
लगा चोब सागू औ नारिकेलि तरु दल मन भाता था॥
हरी दूब कालीन मखमली बिछी मनो मन हर लेती।
बने बेल बूटे से गुल फिरंग की क्यारी छबि देती॥
साज मजलिसी पान दान आदिक सब थे मीनाकारी।
किये काम के औ गंगा-यमुनी सुन्दर शोभाधारी॥
अति विचित्र दल फूले फूलों के गमले थे बने हुए।
रक्खे क्रोटन और केलियस आदि लगे छबि छने हुए॥
रत्न जटित पत्रों के से जो मन को मोहे लेते थे।
शहन शिस्त वेदिका मनोहर के आगे छबि देते थे॥
जिसके चारों ओर सभासद विराजते थे बने ठने।
मानो वस्त्र विभूषण भूषित रूप गर्व के रूप बने॥
विविध जाति औ भाँति के लगे आल बाल लघु तरु सोहे।
रंग बिरंगी फूल खिलाये लेते थे मन को मोहे॥
शीतल मन्द मलय मारुत चल मानो व्यजन डुलाता था।
फैलाता सुगंध की लहर मन की कली खिलाता था॥
धूप धूम पराग उड़ता हुआ हृदय हरसाता था।
विषद विनोद बाढ़ ल्याता मकरन्द विन्दु बरसाता था॥
बंधा सनाका सुर का था संग मिला ताल का प्यारा था।
भरे राग अनुराग रागिनी लय अलाप ढंग न्यारा था॥
सातों सुर संग तीन ग्राम इक्कीस मूर्छनायें जो हैं।
सहज सरसता उनकी सुनकर गन्धर्वों के मन मोहैं॥
सुहावनी सारंगी मानो स्यामा सरस बजाती थी।
दामा अति आनन्द बढ़ाती हुई सरोद सुनाती थी॥
पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/४२३
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