पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/४३५

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ललित भैरव


भाजत रंग डार डार, ए ही जसुमति कुमार,
देखी इत ठाढ़ी वृषभानु की लली॥टेक॥
गावत गाली बनाय, मीठी मुरली बजाय,
रोकत धर बामन बन कुंज की गली।
देखत नहिं तुमरी ओर—राधे भाजौ किशोर!
बद्रीनारायन लहि घात या भली॥४॥

फूले बन लाल लाल टेसू बौरे रसाल,
चटकत चहु ओर सो गुलाब की कली॥टेक॥
बद्री नारायन कवि देखिये अपूरव छवि
भौर भीर अभिरी कल कुंज की गली॥५॥

विनवत हूँ वार वार ए रे चित चोर यार!
नेह को लगाय कहाँ जाय है छली॥टेक॥
बद्री नारायण ज हाय ना विलौकै जू—
मद मनोज भीनी कुच कंच की कली॥६॥

भैरव


दोऊ दृग बास लियो वन में मृग कञ्ज
कीच बीच फसे नेक हीं निहारै।
बद्री नारायण जू मधुकर मद मोच्यो तू,
खञ्जन मन रञ्जन अवलोकि भये कारे॥७॥

साँची कहूँ काकी छवि छीन लीन प्यारे—
फीकी कर दीन हीन जोति चन्द तारे॥टेक॥
बद्री नारायन जू मद मनोज मोच्यो
तू मानहु चतुरानन निज हाथ ही संवारे॥८॥