पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/४३६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
—४०९—

सिन्धु भैरवी


गुजरिया क्यो हँसि हँसि तरसावत॥टेक॥
मुख वारिज सौरभ वयनन सजि, मन मधुकर विलमावत।
असित अलक धन बीच दसन दुनि, हँसि चपला चमकावत॥
निज गति चलि चलि छलि गज सारस, ताल मराल उड़ावत।
बद्रीनाथ चितै चित चोरयो, अब कत दृगन दुरावत॥९॥

कोइलिया भोरहि आन जगावत॥टेक॥
या दई मारी! कोइलिया पापिन, मोहि विरहिनिहिं जलावत।
एक मयन छन चैन देत नहिं, बिरह बिथा उपजावत॥
सनि समीर सौरभ युत लागत, मम धीरजहि नसावत।
बद्रीनाथ पपीहा पी पी करि छतियाँ दरकावत॥१०॥

भैरवी


हमै रट राधा राधा लागी॥
श्रीराधा राधा रट लागी कृष्ण भये अनुरागी।
मन सो भ्रम तम दूर भयो भजि प्रेम ज्योति जिय जागी॥
भव भय हरन सरन असरन जुग चरन ध्याय छल त्यागी।
कृपा वारि वरसाय प्रेमघन जन बनयो बड भागी॥
जाग! जाग! मन भोर भयो भज राधावर घनस्याम।
सेवा कुज कुसुम सेजहि तजि जागे दोउ छवि धाम॥
लागि हिये मुख चूमि चले दोउ बरसाने नंदग्राम।
छाये दुहुँ मन सघन प्रेमघन सकत न तजि वह ठाम॥११॥

माधव मुकुन्द को कर मेरे मन ध्यान।
या जग के जंजाल जाल में कहा फिरै उरझान॥
माता पिता सुत नारि बन्धु हित जेते सुजन जहान।
ये सब स्वारथ के साथी नहिं तोहि परत पहिचान॥