पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/४३७

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कलियुग मैं नहि साधन एकहू जोग जाग तप ज्ञान।
तासो करि प्रभु चरन प्रेमघन अटल कही यह मान॥
साँचे सुहृद स्वामि समरथ हरि एकहि और न आन।
उभय लोक सब सुख के दाता तोहिं न अजहुँ लखान॥१२॥

सिंध भैरवी


जनु कछु जादू करि जानत—
मम मन इमि अनुमानत॥टेक॥
नयन मयन के बान बिराजत,
समसत सूल बरौनी भ्राजत।
सुरमे सहित सरस छबि छाजत,
मीन, जलज, अलि-मृग दृग लाजत,
सो मन खग के हाय हतन
हित भौंह कमाननि तानत॥१३॥

जनु कछु...अनुमानत॥टेक॥
मारन की विधि कहीं प्रथम हम,
अबलोकनि अखिंयन को अनुपम,
मोहन मृदु मुसुक्यानि मंजु तम,
सिसकारी सुभ वसी करन सम,
दन्तन दाबि अधर मन जन जग,
उच्चाटन विधि ठानत॥१४॥
जनु कछु...अनुमानत॥टेक॥
मीठे बैन सुनाय रिझावत,
विबिध भाव करि चाव चढ़ावत,
मयन अयन हिय हाय बनावत,
जुग दृग मीन मनहु गहि लावत,
कुन्तलि अवलि जाल बल सों—
नहिं हीन दीन पहिचानत॥१५॥