पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/४६१

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नहिँ वह चन्द अमन्द बदन की दुति दमकनि दिलदार।
नहिँ वह गोल कपोल लोलता लसित ब्याल से बार॥
नहिँ वह मुरनि कुटिल भृकुटिन मैं मनहुँ सरासन मार।
नहिँ सर चपल चखनि चितवनि चुभि होत हिये जो पार॥
नहिँ वह हाव भाव नखरे अन्दाज़ नाज के तार।
चोज चोचले नहीं करिश्मे गम जों के व्योहार॥
(नहिं वह) अरनि मुरनि अधरनि मैं वह मुसकानि करन लाचार।
सिसकारनि पीसनि दन्तनि दुति दाने मनहु अनार॥
नहिं वह चित चोरनि मन्मोहनि चकित करनि संसार।
नित यारन की लाग डाट मैं उपजावनि वह खार॥
नहिं वह तुम रहि गये न मेरे इन अखियनि वह प्यार।
नहीं उन्माद न चित उत्साह न मन मेरो रिझवार॥
लाख मदन उन्माद होय वा अमित प्रेम उद्धार।
पै फीकी लागत आवत बृद्धापन को पतझार॥
बिती जवानी की जब जानी विमल बसन्त बहार।
प्रेम सुमुखि युवतिन को तब तो है फजीहताचार॥
बरनन मैं बिभत्स के सोहत कैसहु रस श्रृंगार।
श्री बद्रीनारायन यह गुनि के हम कसे कनार॥१०६॥

अरी अल्बेली तज यह बान॥टेक॥
उझकि उझकि जनि झाँकि झरोखे अरी कही यह मान।
तन दुति दामिनि सी दरसावति कहर कलह की खान॥
राह चलत युवजन रसिकन तकि तानत भौंह कमान।
मारत नैनन बानन सों साजे सुरमा की सान॥
गोरे भुज पै श्याम सघन लट छिटकीं छबि छहरान।
लै सम्भार अंचल आली दिखलाय न उरज उठान॥
झुलनी की झूलनि गालनि की गालन पै हलकान।
झनकारनि पाजेवनि की कछु मनहीं मन बतरान॥