पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/४६६

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कोइ सोय खोय धन रोवे,
कोइ धन डर बिन सोये झेला।
पर निर्धन जन हर हाल सुखी,
ना खोना है ना रोना;
सोना आनन्द सेती लेकिन,
सबको सबेर उठ जाना है॥१॥

जग के दरख्त के ऊपर,
घर चिड़ियों का न बसेरा है,
सब देस देस के पच्छी,
अब एक ने एक को घेरा है।
एक एक के डर से डरती है,
बोल बोल एक कड़ई तीखी,
एक तीखी बैन सुनाय पथिक,
दिन को हो गई रवाना है॥२॥

संसार चमन चमकीला,
हैं रंग विरंगी फूल खिले,
कोइ सुभ सुगन्ध सरसावै,
कोई सोभि मंजु मलिन्द मिले।
कोइ काँटे गड़ दुख देत मनुज,
कहीं शीत छाँह कहिं मीठे फल,
पतझड़ उजाड़ कराती है,
औ कभी बसन्त सुहाना है॥३॥

श्रीयुत बद्रीनारायन जू,
कवि बरसे जैहैं बुध तब,
जिनको न फिकिर हरलोकी,
औ नहीं आकबत को भी डर।