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पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/४८२

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भूषन मानिक बसन केसरिया तन सुभ साज सजाया बनरा॥
मनहुँ प्रेमघन प्रेम बनी के नख सिख सुरंग नहाया बनरा॥१६१॥

बनरा


आज सजि साजि आया बनरा लाड़े लावे॥टेक॥
सिर पर सहरा मोतियों का वे निरखत नैन लुभाया॥
बद्रीनाथ देखि शोभा यह मन मन मयन लजाया॥१६२॥

(एजी) चहुँ ओर बजतब धैय्या, नृप लाडिले घर जाय॥टेक॥
बद्रीनारायन द्विजवर, मंगल मचो घरघर,
छवि सौगुनी नगर की, बन ऋतुपति आये॥१६३॥

बनरा घराती


बनरा का ससि आया बनरा, सब के चखनि चकोर बनाया।
जामा सुभग सियो दरजी तुव पाग रुचिर रँगरेज सुहाया॥
सुखमा सीस तिहारी माली सजि सेहरा अति अधिक बढ़ाया।
गर लगाय माला तू अपनी करि टोना जनु चितहि चुराया।
चिरजीओ सौ बरस प्रेमघन बरसि बरसि रस हिय हुलसाया॥१६४॥

सुहाती गाली


गारी देन जोग नहिं कबहूँ समझि परौ तुम प्यारे।
सब सद गुन सों भरे पुरे हौ तुम सारे के सारे॥
लहियत नहिं उपमा सुखमा तुव घर की बात बिचारे।
सब दिन तुम सत्कार्‌यो सब बिधि अति उदारता धारे॥
झूठ नांहि रतिहू जाचत जे जाय आय के द्वारे।
सो सौ मग सत्कार सदा लहि पीटत सुजस नगारे॥
गिने विवुध सौ जन में तुम वन्दित जाहु बिठारे।