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पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/४९२

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दिले मजनू तो कभी होता न लैली का असीर,
रश्के लैली जो कहीं तू नजर आई होती।
लेता फिर नाम न फ़रहाद कभी शीरी का,
चाँद सी तुमने जो सूरत ये दिखाई होती।
गो कि फूला न फला नख्ले तमन्ना फिर भी,
उसके गुलज़ार तक अपनी जो रसाई होती।
तेगे अबरू जो कहीं होती न तेरी खमदार,
तो न मैं शौक से गर्दन ये झुकाई होती।
फिर तो इस पेच में पड़ता न कभी मैं ऐ अब्र,
जुल्फ पुरपेंच से अबकी जो रिहाई होती॥७॥

तेरे इश्क में हमने दिल को जलाया,
कसम सर की तेरे मजा कुछ न पाया॥टेक॥
नजर खार की शक्ल आते हैं सब गुल,
इन आखों में जब से तू आकर समाया।
करूं शुक्र अल्लाह का या तुम्हारा,
मेरे भाग जागे जो तू आज आया।
हुआ ऐ असर आहोनालो में मेरे,
पकड़ कर तुझे चङ्ग सी खींच लाया।
किसी को भला मकदरत कब ये होगी,
हमीं थे कि जो नाज तेरा उठाया।
असर हो न क्यों दिल में दिल से जो चाहे,
मसल सच है जो उसको ढूँढा वो पाया।
शहादत की हसरत ने है सर झुकाया,
जो शोखी से शमशीर तुमने उठाया।
तसउवर ने तेरे मेरे दिल से प्यारे,
हमी की है वल्लाह हम से भुलाया।