पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/५१

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बोले हम यों भयो चीथरा बदन तुम्हारो।
नेकहु लगत न नीक भयंकर परम न कारो॥२७॥
कह्यो वृद्ध हँसि तुम अबोध शिशु जानत नाहीं।
होत भयंकर पुरुष, नारि रमनीय सदाहीं॥२७२॥
कोमल, स्वच्छ, सुडौल, सुघर तन सुमुखि सराही।
बाँके, टेढ़े, चपल, पुष्ट, साहसी सिपाही॥२७३॥
होत न जानत जे मरिबे जीने की कछु भय।
अभिमानी, स्वतन्त्र, खल अरि नासन मैं निर्दय॥२७४॥
सदा न्याय रत, निबल दीन गो द्विज हितकारी।
निज धन धर्म भूमि रच्छक आसृत भय हारी॥२७५॥
कुरुख नजर जे इन्द्रहु की न सकत सहि सपने।
तृन सम समुझै अरि सन्मुख लखि आवत अपने॥२७६॥
पुनि अपने बहु बार लरन की कथा कहानी।
बूढ़ बाघ सों डपटि डपटि कैं बोलत बानी॥२७७॥
रहत पहर दिन जबै जानि संध्या को आगम।
सायं कृत्य हेतु तैयारी होत यथा क्रम॥२७८॥
धोइ भंग कोऊ कूड़ी सोंटा सों रगड़त।
कोउ अफीम की गोली लै पानी सों निगलत॥२७९॥
कोउ हुक्का अरु कोऊ भरि गाँजा पीयत।
कोऊ सुरती खात बनै कोउ सुंघनी सूंघत॥२८०॥
कोउ लैं डोरी लोटा निकरत नदी ओर कहँ।
कोऊ लै गुलेल, गुलटा बहु भरि थैली महँ॥२८१॥
कोऊ लिये बंदूक जात जंगल महँ आतुर।
मारत खोजि सिकार सिकारी जे अति चातुर॥२८२॥
कोऊ फँसावत मीन नदी तट बंसी साधे।
भक्त लोग जहँ बैठे रहत ईस आराधे॥२८३॥
संध्या समय लोग पहुँचत निज निज डेरन पर।
निज २ रुचि अनुसार वस्तु लीने निज २ कर॥२८४॥