पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/५२

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कोउ खरहा कोउ साही मारे अरु निकिआये।
कोउ कपोत, कोउ हारिल, पिंडुक, तीतर लाये॥२८५॥
कोउ तलही, मुर्गाबी, कोऊ कराकुल, मारे।
काटि, छाँटि, पर, चर्म, अस्थि, लै दूर पवारे॥२८६॥
कोउ भाजी जंगली, कोऊ काछिन तैं पाये।
बहुतेरे पलास के पत्रन तोरि लिआये॥२८७॥
बिरचत पतरी अरु दोने अपने कर सुन्दर।
कोऊ मसाले पीसत, कोउ चटनी व ततपर॥२८८॥
कोउ सीधा, नवहड़ ल्यावत मोदी खाने सन।
खरे जितै रुक्का लीने बहु आगन्तुक जन॥२८९॥
जोरत कोउ अहरा, कोऊ पिसान लै सानत।
कोऊ रसोई बनवत अरु कोऊ बनवावत॥२९०॥
दगत जबै इक ओरहिं सों चूल्हे सब करे।
जानि परत जनु उतरी फौज इतै कहुँ नेरे॥२९१॥
आज तहाँ नहिं कोऊ कारो कोहा लखियत।
नहिं कोउ साज समाज, जाहि निरखत मन बिसरत॥२९२॥
बटत बुतात, जहाँ रुक्के, साँझहि सो पहरे।
अतिहि जतन सों चारहुँ दिसि दुहरे अरु तिहरे॥२९३॥
जाँचत जमादार दारोगा जिन कहँ उठि निसि।
जरत पलीता रहत तुपक दारन को दिसि दिसि॥२९४॥
घूमत जोधा गन जहँ पहरन पर निसि चटकत।
आवत हरिकारन हूँ को जगदिसि पग थहरत॥२९५॥

वर्षा ऋतु व्यवस्था

आवत जब बरसात झरी निस दिन की लागत।
तब तो आठो पहर अधिक तर ढोलहिं बाजत॥२९६॥
गावत करखा आल्हा के योधा अलबेले।
देत वीरता बारिधि की लहरै जनु रेले॥२९७॥