पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/५१०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
—४८५—

नवीन संशोधन


आये सावन, सोक नसावन, गावन लागे री बनमोर॥
घहरि घहरि घन बरसावन, छबि छहरि छहरि छहरावन।
चातक चित ललचावन, चहुँ ओरन चपला चमकावन॥
संजोगिन सुख सरसावन, बिरही बनिता बिलखावन।
अधिक बढ़ावन प्रेम, प्रेमघन पावस परम सुहावन॥१७॥

साखी बद्व


घिरि घिरि आए बदरा कारे, प्यारे पिय बिन जिय घबराय॥
आह दई! बचिहैं कला कौन बियोगी प्रान।
चहुँ ओरन मोरन लगे अबहीं सों कहरान।
झिल्लीगन झनकारत, मारत बैरी दादुर सोर सुनाय॥
अंधियारी कारी निसा निपट डरारी होय।
बाढ़त बिरह बिथा जुरी जोति जोगिनी जोय।
पी! पी! रटत पपीहा पापी सुनि धुनि धीर धरो नहिं जाय॥
इन्द्र धनुष धनु, बूँद सर बरसावत यह आज।
बरखा ब्याज बनो बधिक मदन चल्यो सजि साज।
सहत न बनत पीर अब आली! कीजै कैसी कौन उपाय॥
चखचौंधी दै चंचला चमकि रही चढ़ि चाव।
करि करवाली काम के करवाली उर घाव।
पिया प्रेमघन सों कहु आली आवैं, मोहिं बचावैं धाय॥१८॥

जन्माष्टमी की बधाई


धनि धनि भाग जसोदा तेरो! जायो जिन अबिनासी बाल॥
सकल सुरन पूजित पद पल्लव, असुर कंस को काल।
सुक, सनकादिक, नारद, मुनि मन मानस मंजु मराल॥
तजि गोलोक, आय गोकुल, जगदीस भयो गोपाल।
सुकवि प्रेमघन बृज मैं छायो मंगल मोद बिसाल॥१९॥