पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/५१२

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निरखि सुहावन सावन घन की घिरी घटा कारी।
नाचत मोर, कोकिला, चातक चहँकत हिय हारी॥
बन प्रमोद सुन्दर सरजू तट भई भीर भारी।
रघुनन्दन सँग जनक नन्दनी मिलि सखियाँ सारी॥
गावत कजरी औ मलार सावन बारी बारी।
बरसत जुगल प्रेमघन रस हरसत जनु मन वारी॥२३॥

उर्दू भाषा


आई क्या ही भाई भाई दिल को यह प्यारी बरसात॥
घिर कर अब्र-सियः ने बनाया इकसाँ दिन औ रात।
अजब नाज़ अन्दाज़ दिखाती बिजली की हरकात॥
छाई सब्ज़ी ज़मीं पे गोया बिछी हरी बानात।
खिले गुले गुलशन, क्या लाई कुदरत है सौगात॥
शुरू रक़्से ताऊस हुआ सहरा में, शोरि नग़मात।
गातीं झूला झूल झूल कर नाज़नीन औरात॥
चलो सैर को साथ जानि-जाँ मानो मेरी बात।
बरस रहा है "अब्र" प्रेमघन गोया आबि-हयात॥२४॥

दूसरी


गैरों से मिल मिल कर मेरा क्यों दिल जिगर जलाते हो।
क़सम खुदा की साफ़ बता दो क्यों शरमाते हो।
यार प्रेमघन "अब्र" मज़ा क्या इसमें पाते हो॥२५॥

तीसरी


वारी २ जाऊँ तुझ पर दिलवर जानी सौ सौ बार।
दिखा चाँद सा चिहरा मत कर तीरे निगाह के वार॥
इस बोसे के लिये सताते हो करते तकरार।
खूब प्रेमघन "अब्र" मिले तुम हमें अनोखे यार॥२६॥

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