पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/५२३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
—४९९—

निरखत लीला ललित सुखद सावन मैं ध्यान लगाये रामा।
हरि २ भरे प्रेमघन प्रेम जोरि जुग पानी री हरी॥६०॥

दूसरी


छनहीं छन छन-छबि की छबि है, छहरति आज छबीली रा॰।
हरि २ घिरी घटा घन की क्या, कारी कारी रे हरी॥
हरी भरी क्या भई भूमि, तरु ललित लता लपटानी रामा॥
हरि २ चलन लगी पुरवाई प्यारी प्यारी रे हरी॥
कूकैं मधुर मयूरी, नाचैं मुदित मोर मदमाते रामा।
हरि २ चहुँ चिलायँ चातक चढ़ि डारी डारी रे हरी॥
गुँजत मञ्जु मनोज मंत्र से, भँवर पुञ्ज कुञ्जन मैं रामा।
हरि २ फबे फूल खिलि जंगल, झारी झारी रे हरी॥
बरसत मनहुँ प्रेमघन रस जुबती मिलि झूला झूलैं रामा।
हरि २ गाबैं कजरी सावन, बारी बारी रे हरी॥६१॥

गृहस्थिनों की लय


मीठी तान सुनाय प्रान करि बिकल गयो बनमाली रामा।
हरि २ मोहि लियो मन मेरो मुरलीवाला रे हरी॥
मोर मुकुट सिर, लकुट कलित कर, कटि पट पीत बिराजै रा॰।
हरि २ छबि छाजै उर लसित ललित बनमाला रे हरी॥
रसिक प्रेमघन बरसत रस क्या सुभग सांवरी सूरत रामा।
हरि २ मनहुँ मोहनी मूरति मदन रसाला रे हरी॥६२॥

नवीन संशोधन


कैसी करूँ! देत दरकाये अंगिया, उभरे आवैं रामा।
हरि २ नाहीं मानै मदमाते जोबनवाँ रे हरी॥
लगे सखी सावनवाँ अजहू आए नहीं सजनवाँ रामा।
हरि २ मोरवा बोलन लागे बनवाँ बनवाँ रे हरी॥
पिया प्रेमघन के बिन कैसौं भाव नहीं भवनवाँ रामा।
हरि २ सूनी सेजिया लागै नहीं नयनवां रे हरी॥६३॥