पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/५२८

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रसिक प्रेमघन बदरी नारायन मन लै मत भूलो रामा।
कतरावो जिन हमको देखि डगरिया रे हरी॥७५॥

विन्ध्याचली लय


घुमड़ि घुमड़ि घन गरजन लागे रामा।
हरि २ सैयां बिना जियरा घबरावै रे हरी॥
काली रे कोइलिया कुहूं कुहूं रट लाये रामा।
हरि २ बिरहा बधाई मोरवा गावै रे हरी॥
पिया प्रेमघन अजहुं न आये, आली सुधि बिसराय रामा।
हरि २ सूनी सेजिया सांपिन सी डंस जावै रे हरी॥७६॥

गुण्डानी लय
तथा गुण्डानी भाषा और भाव


ठाला में क्या सावन बीतल जाला रे हरी॥
तोहरे संगी साला, रोजै लहर करैलैं आला रामा।
हरि २ हम तौ बैठा फेरत बाटी माला रे हरी॥
तुहईं पर जिव जाला, हमसे जिन करः टालबेटाला रामा।
हरि २ ठहरावः जिन दै दै बुत्ता बाला रे हरी॥
यार प्रेमघन प्याला मदिरा प्रेम पिये मतवाला रामा।
हरि २ तोहरे दर पर अब तो डेरा डाला रे हरी॥७७॥

गवैयों की लय


ज्यों वर्षा ऋतु आई, सरस सुहाई, त्यों छबि छाई रामा।
हरि २ तेरे तन पर जानी, जोति जवानी, रे हरी॥
जोवन उभरत आवैं, ज्यों नद उमड़त घुमड़त धावैं रामा।
हरि २ टूटत ज्यों करार, चोली दरकानी, रे हरी॥
ज्यों कारे घन घेरे, त्यों कजरारे नैना तेरे, रामा।
हरि २ बरसत रस हिय रसिक भूमि हरियानी, रे हरी॥