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पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/५३५

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दूसरी


है जानी! दिन चार जँवानी॥
दिना चार की चमक चाँदनी, फेरि अँधेरी रात अयानी॥
बादर की परछाहीं है यह, तापैं काह इती इतरानी।
बरसौ रस मिलि रसिक प्रेमघन बैठी हौ भौंहन जुग तानी॥९६॥

तीसरी


हाय! गयो जादू जनु डाली॥
चुभी चितौन कौन विधि निकरै, कसकत रहत अरी उर आली
बिसरै नाहिं प्रेमघन पिय की प्यारी छबि मनमोहनवाली॥९७॥

झूले की कजली
वृजभाषा भूषित


झूलन की उझकनि झूकि झूलनि॥
कलित निकुंज कदम्ब कलापी
कुल कूकनि कालिन्दी कूलनि।
ललित लतन लपटनि तरु उपबन
फबे फैलि फूले फल फूलनि॥
गावनि गरबीली गजगामिनि
गन गोपाल हरखि हंसि हूलनि॥
लहँगन की लहरानि पितम्बर,
की फहरानि हरनि हिय सूलनि॥
झुमकन की झूलनि जैसी,
त्यों झुलनी की झूलनि सुख मूलनि।
उरझनि बनमाली बन माला,
बाल माल मोती सँग चूलनि॥
प्रेम प्रलाप करत दोउ मोहे,
कहि २ निज बतियन की भूलनि॥