पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/५३६

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बरसत रस मिलि जुगल प्रेमघन,
लगि हिय लहि आनन्द अतूलनि॥९८॥

तिनतुकी
खँजरीवालों की लय


नन्द के कुमार, दियो तन मन वार
लखि आई तोरे जोबन पर बहार रे गुजरिया॥
जनु करतार, निज हाथनि सँवार,
दियो तोहि रचि जगत सिंगार रे गुजरिया।
नैना रतनार, मयन मद मतवार,
हेरि सैनन की हनत कटार रे गुजरिया॥
दरके अनार, लखि मस्कान डार,
देत मानौ मोहनी सी पढ़ि मार रे गुजरिया॥
प्रेमघन यार, गयो तोपैं बलिहार,
ताकु ताहि तनी घूँघट उघार रे गुजरिया॥९९॥

उर्दू भाषा


दिल फ़रेब दिन हैं सावन के॥
घिरकर काली घटा दिखाती है जोबन को चर्ख़ कुहन के।
सब्जा छाया ज़मीं प' हंसते हैं खिलकर गुल हाय चमन के॥
घूम रही हैं बीरबहूटी गोया बिखरे लाल इमन के।
चमक रही है बर्क सीखकर नख़रे नाज़नीने पुरफ़न के॥
नाच रहे हैं मोर पपीहे शोर मचाते हैं गुलशन के।
गा कर झूला झूल रहे हैं माह लक़ा सब सीम बदन के॥
पियो मये गुलरंग भूलकर सब खयाल बातिल बचपन के।
अब्र बरसता है वाराँ दो बोसे दो लिल्लाह दहन के॥१००॥