पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/५५०

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आये पिया कर करत निरादर,
रूठि गये पछितात, रे दुइ रगी॥
बरसि बरसि निकरत, पुनि बरसत,
आई भली बरसात, रे दुइ रगी॥
निसि अँधियरिया मँ चमकै बिजुलिया,
भइलि सोहावनि रात, रे दुइ रगी॥
लाज सजोग के सोच बिचार में,
बितलि जवानी जात, रे दुइ रगी॥
प्रेम प्रेमघन सो कर नाहक,
गुरुजन डर सकुचात, रे दुइ रगी॥१२९॥

पाँचवीं लय


सावन में मन भावन सो चलिकै मिलु आली।
बंसी बजाय बुलावत है तोहिं को बनमाली॥
घेरत आवत अम्बर देखि घटा घन काली।
काहे बिलम्ब लगावत है उठ री अब आली॥
फेकु छडा छला चम्पकली बिजुली अरु बाली।
तोहि अभूषन रूप रची विधि नारि निराली॥
काहे सिंगार सिगारत री करि बीस बहाली।
वैसहिं तू घन प्रेम पिया मन मोहन वाली॥१३०॥

छठवीं लय


कारे बदरा रे जल बरसि रहे।
छन गरजि सुनावै, दुति दामिनि दिखावै।
घिरि घिरि आवै, जनु छिति परसि रहे॥
मोर नाच किलकारि, घेरी घटनि निहारि,
पिक पपिहा पुकारि, हिय हरसि रहे॥