पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/५६६

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हरियारी चहु ओरन छाई—तापें बीरबधू अधिकाई,
देती छिति छबि लखि सुख दाई,
मन मानिक जनु बार बार॥
ससि वदनी सजि सूही सारी, जुव जन गन मनमोहन वारी
मिलती नाह नेह निजधारी, मान मान हिय हार हार।
श्रीबद्रीनारायन पिय बिन, करि बेचैन मैन मन छिन छिन
कहरत कोकिल कूर कसाइन, कूक हूक हिय मार मार॥५॥

ए पिय पावस भूपति आये॥टेक॥
घन कारे कारे मतवारे दतवारे समताये,
गरजनि जनु बाजति दुन्दुभि दादुरन की छबि छाये॥
इन्द्र धनुष को धनु लाये धरि बूँदिन सर बरसाये,
ग्रीषम रिपु ढूँढत छन छन छन, छबि करवाल लखाये॥
जीगन गन दीपावलि तापै मोरन नाच नचाये,
झिल्लीगन झनकार चहूँ दिशि बाजन रुचिर बजाये॥
ऐसे सजि सजाय चलि आयो चितवत चितहि चुराये,
बकनि पंक्ति को मुक्त माल उर बद्रीनाथ सुहाये॥६॥

बदरा गरजि गरजि दुख देत॥टेक॥
तरु पै झिल्ली कारी निशि में दादुर बोलत खेत॥
पौन प्रबल पुरवाई झकोरत तोरत वृक्ष निचेत
चपला चमकि चमकि चौंधी दै चटपट करत अचेत॥
सुन्दर स्वच्छ बितान बनायो सुथरी सेज सपेत।
बद्रीनाथ पिया बिन सेजिया सांपिन सी डस लेत॥७॥
चपलारी चहुँदिसि चमकि चमकि छिति चूमैं-जलद घन बूनन बरसैं।
चलत सुगन्ध सनी पुरवाई—दुखदाई तन परसै
श्रीबद्रीनारायन जू पिय बिन आली तिय तरसैं॥८॥
घिरि श्याम घटा घहराय रहीं,
चमकनि चपला छवि छाय रहीं॥टेक॥