पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/५६७

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घन बूननि की बरसनि सों,
छिति कछु औरहि शोभा पाय रहीं॥

नाचत मयूर बन मैं प्रमुदित,
मोरिन कल कूक सुनाय रहीं॥
 
मालती मल्लिका हरसिंगार जूही भौंरन ललचाय रहीं।
श्रीबद्रीनारायन पिय बिन, बिरही वनिता बिलखाय रहीं॥९॥

फेरि मुरवा लागे कहरान—कैसे बचेंगें अब प्रान॥टेक॥
लागे गगन सघन घन घुमड़ै—घेरि घेरि घहरान॥
बूँदन की बरसनि पुरवाई सरस समीर चलान॥
श्रीबद्रीनारायन बिन लागं छतियां थहरान॥१०॥

घोर घन सघन लगे घुमड़ान, घेरि घेरि घहरान॥टेक॥
बिस्तारनि वर्षा बहार बर—बारि बिन्दु बर्षान।
बिलसत ब्योम बकावलि बीर बधून बृन्द बिलगान॥
चहु ओरन चौंधी दै लोचन, चपला चपल चलान।
चोरनि चित चांदनी चमक बिन चकि चकोर सकुचान॥
सीरी सरस सुगन्ध सनी संचार समीर सुहान;
सोहे सहज स्याम सरसीरुह सो सर सलिल महान॥
कूटज बकुल कदम्ब कुसुम करमा कलाप बिकसान;
कल कोकिल कुल की किलकारनि केकिन की कहरान॥
जगत जमात जुरी जीगन जोवन जनु जामिन जान;
जरित जवाहिर जोति जुवति जन ज्यों जौहर जहरान॥
मधु मय मुकुल मालती मंजुल मनहि मनोहर मान,
माते मुदित मलिन्द मधुर मकरन्द मयी मदिरान॥
लहलहात लोनी लागत अति ललित लवंग लतान;
लोचन लेत लुभाय अली अलबेली लहर लखान॥