पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/५६८

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गरवीली गजगामिनि गन लागी झूलन करि गान;
श्री बद्री नारायन पिय हिय, लागन लागीं आन॥११॥

आली भोरहि आज घुमड़ि घन घेरे आवत हैं॥टेक॥
इन्द्र धनुष घन बूँदी सर त्यों, चपला कृपान को साज॥
यों बनि बीर बेष आयो बध बिरही बनिता काज;
श्री बद्रीनारायन लै पिक दादुर सैन समाज॥१२॥

भीजत सांवरे संग गोरी,
बरसाने बारी रस बोरी।
ज्यों घन श्याम मिली दामिनि घनश्याम भामिनि भोरी॥
जोरी होत निहाल जुगल गल ललकि भुजन जुग जोरी।
वृन्दावन कालिन्दी कूलनि कलित निकुंजन खोरी॥
दोउ प्रेमघन दुहुँ के माते इतराते चित चोरी॥

धूरिया मलार


घन उमड़ि घुमड़ि नभ धावैं—अबहीं ते विरहीन डरावैं॥टेक॥
यद्यपि नहिँ बरसै तौ हूँ सजनी सुखमा सरसावैं॥
मधुर अलापी मोर चातकन चित चितवत ललचावैं॥
उड़त बकावलि झिल्ली बोली पुरवाई बहि भावैं॥
श्री बद्री नारायन लखियै भूपति पावस आवैं॥

ये अबहीं ते लागे गाजन, बादल सैन मैन सम साजै॥टेक॥
पावस सेनापति लीने चलो, विरही जन बध काजन;
इन्द्र धनुष धनु बूँदी सर असि छन छबि की छबि छाजन॥
दादुर मोर सोर के लागे, समर बाजने बाजन,
बद्रीनाथ यार या ऋतु मैं चहत चले कित भाजन॥

(हो) अबहीं ते मोर अलापैं कोकिल किलकैं कीर कलापैं॥टेक॥
मानहुँ बर्षा बधिक आगमन कहत बिरही अबला पैं,