पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/६०७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
—५८५—

मनमोहन दिलजानी भरन दे पानी॥टेक॥
तुमहो एक छैल जग जन में, निरखत नारि बिरानी॥
श्री बद्री नारायन जू पिय आय रार क्यों ठानी।

घाव कारी कटारी नजरिया कैसी प्यारी लगाई रे॥टेक॥
मन्द मधुर मुसुकाय लुभायो, प्रीत जानी जगाई रे॥
बदरी नारायन जनु टोना डारि बौरी बनाई रे॥

प्यारे तेरे नैन रँग राते॥टेक॥
करि छबि छीन मीन, अलि, सारँग, निज गरूर मदमाते॥
श्री बदरी नारायन जू चित चोरी करत लजाते॥

खिमटा


चितै जनु करि गयो टोना रे॥टेक॥
भूख प्यास छूटी तबही सों, नैन रैन सोना रे॥
बदरी नारायन दिलवर यार, अब जोगिन होना रे॥

न भूलै सुरतिया यार की हो॥टेक॥
मुख मोरनि मुसुकानि मनोहर वहु चितवन कछु प्यार की हो॥
बदरीनाथ मोहनी मूरत मन मोहन दिलदार की हो॥

सखि सतरानि नहीं यह नीकी॥टेक॥
हाहा! खाय परत पायन नहिँ सुनत विनय तूँ पीकी॥
श्री बदरी नारायन जू है कैसी कठोर जी की॥

खिमटा परच


सूरत मूरत मैन लखे बिन नैना न मानें मोर॥टेक॥
बरजत हारि गई नहिँ मानत जात चले बरजोर॥
बदरीनाथ यार दिलजानी मानत नाहिँ निहोर॥