पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/६२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
-३३-

जामै राजत कुटी एक फूसहि सों छाई।
आलड्वाल विहीन तऊ अतिसय सुखदाई॥४२०॥
जामैं चौकी एक खाटहू इक साधारन।
बिछी रहति इक ओर सहित सामान्य अस्तरन॥४२१॥
कम्मल गुनरी और चटाई हू द्वै इक जित।
रहति तहां आगन्तुक जन के बैठन के हित॥४२२॥
द्वै ही इक जल पात्र और सामान्य उपकरन।
प्रस्तुत वामें रहत सहित द्वै इक सेवक जन॥४२३॥
जेठे वृद्ध पितामह मम ऋषि कल्प जहां पर।
रहत विरक्तभाव सों भक्ति ज्ञान के आकर॥४२४॥
केवल सान्त सुभाव मनुज जाके दर्शन हित।
जाते जिज्ञासू जन अरजन ज्ञान हेतु तित॥४२५॥
संसारिक बातन की तौ न चलत चरचा तहँ।
ज्ञान विराग भक्ति मय कथा पुरान होत जहँ॥४२६॥
जब हम सब बालक गन जाय तहां जुरि जाते।
करि प्रणाम दूरहिं सों छिति पर सीस नवाते॥४२७॥
विहँसि बुलाय लेत पढ़िबे की बातें पूंछत।
अरु आरोज्ञ प्रश्न, करि सत सिच्छा उपदेसत॥४२८॥
बैठारत ढिग, कहत दास निज सों आनन हित।
मालिन सों फल मधुर हम सबन हेतु यथोचित॥४२९॥
पाय पाय फल हम सब बिदा होय तहँ सो सब।
घूमत घुसि उद्यान बीच इत उत सब के सब॥४३०॥
नोचत कोऊ खसोटत फल फूलन मन भाए।
कच्चे पके; कली डाली हाली हरषाए॥४३१॥
यदपि चलत चुप चाप दुराए गात सबै जन।
तऊ पाय आहट लख चिल्लाते माली गन॥४३२॥
भाजत हम सब तुरत खदेरत आवत माली।
बीनत गिरी परी कलिका फल संयुक्त डाली॥४३३॥