पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/६२४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
—६०२—

चौथी


बगियन बिच चटकि रहीं कलियां।
कल कोकिल कूँजि रहे सुभ सुर, मारुत मुद मय मनु मन्द मधुर,
मधुकर लखियत गलियां गलियां।
फूले पलास झुकि झूमि रहे, कछु गहव गुलाबन आव गहे,
बद्रीनारायण जू पिय संग, सब घूमत प्रेम भरी अलियां।

पाँचवीं


रूप के रूप जगत जनाय, छिटकीं चमकीली चांदनियां।
ज्यों चन्द अमन्द अमी अन्हाय, निखरी सोहैं दुति दामिनियां।
चित चोरनि मैं ज्यों चन्दमुखी, चंचल दृग भोरी भामिनियां।
सित अभिसारिका चली पिय पै, सजि सित सिंगार गज गामिनियां।
बनि आई बदरीनारायन, बनिता बसन्त कल कामिनियां।

छठवीं


ऐरी मतवाली मालिनियां, कित जादू डाले जात चली।
दिखलाय हाय कछु कहि न जाय, उघरत चंचल अंचल छिपाय,
उभरे औचक युग कंज कली।
छवि चम्पक की सी अंगन की, दुति कुन्द कली सी दन्तन की।
लाली गुल्लाला अधर छली।
हैं ललित कपोल अमल कैसे, ताप तिल की शोभा जैसे।
सोवत गुलाब पै जाय अली।
श्री बद्रीनारायन प्यारी, नरगिसी आंख वाली आरी।
छवि तेरी लागत मोहै भली।

सातवीं


कैसी यह बान सिखी गुइयां।
छाई ऋतु सरस सुहाय रही, तिहि औसर वीर रिसाय रही,
चल री बलि लागति हूं पैयां।