पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/६२५

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बगियन मधुकर गन गूँजत है, कल कोकिल कुंजन कूँजत है।
तजि के अब मान मिलौ सजनी! बद्री नारायन जू सैयां।

बसंत


आवत देख्यो ऋतुराज आज, सजि मनहुं मयंक मुखीन साज।
मद मत्त मनहु मतंग गौन, सीतल सुगन्ध सनि सरस पौन।
सुभ सुमन सुबन बागन विकास, जैसे जुवती जन जनित हास।
सर शोभित सह अंकुर सरोज, जिमि बाला उर उकसित उरोज।
श्री बद्रीनारायन बनाय, नव बनक लियो मन कै लुभाय।

दूसरी


ऋतु नवल सुखद शोभित बहार, बिहगावलि राजत डार डार।
सुमनावलि सुखमा कहि न जाय, चित चितवत ही लेती चुराय।
मिलि सौरभ-सरस सुमन्द गौन, पूरित पराग सों बहत पौन।
छिति देत सुमन तरु झूमि झूमि, मानहु प्रमुदित मुख चूमि चूमि।
तेहि अवसर बद्रीनाथ यार, परदेस चलन चाहत गंवार।

तीसरी


मुसक्यात जात रंग डार डार, मुख चितवत हरि को बार बार।
कोऊ पिचकारी लै कहत मार, कोऊ टेरत वीर अबीर डार।
सब गावत ब्रजबासी धमार, लखि गोपिन की ठाढ़ी कितार।
सुखमा लखि बद्रीनाथ बार, तन मन धन इन पै सौ सौ बार।

चौथी


मुसक्यात जात मुख मोरी मोरि, निज प्रीतम पै दृग जोरि जोरि।
कहुं ग्रीव हिलावत लंक तोरि, कहुं नाक सिकोरति भौं मरोरि।
कहुं ढोढी दै कर हंसत थोरि, अति जोबन मदमाती किशोरि।
कहि बद्रीनारायन निहोरि, चित चितवत लेतौ चोरि चोरि।