पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/६२६

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पाँचवीं


सब सखियां लखि आईं बहार, होली खेलन को हैं तयार।
कोउ पहिरे सारी कामदार कोउ धानी कोऊ गुलैनार।
कोउ लै दरपन कर कर सिंगार, कोउ आंजत दृग कोऊ सजत बार।
कोउ कंकन कर उर पहिर हार, जेहि लखि लखि लाजत कोटि मार।
बदरीनारायन जू कितार, बंधि कै बरसावत रंग अपार।

छठवीं


नभ लखियत उड़त गुलाल लाल, जलनिधि जनु फैलो तरु प्रवाल।
दृग लाल लाल छिति अति रसाल।
लालै बन किंशुक सुमन डाल, लहरात ललित लोने तमाल।
कोकिल कुल कलरव कर कमाल, संग सरस सुरन सह ताल जाल
जिमि शोभित रंग भूमी विशाल।
श्री बद्रीनारायन निहाल, दम्पति मुदमय बिलसत वहाल।
विरही हित काल कठिन कराल।

सातवीं


सिर सोहत तेरे बसन्ती पाग, लखि उठत मनोभव जाहि जाग।
श्री बद्रीनारायन निहार, मैं जाऊँ तुझ पर वार वार।

होली


नन्दलाल संग ग्वाल बाल, रंग पिचकारी भरभर लीन्हें धावें आवेंः
मोर मुकुट पीताम्बर छाजत, निरखत छटा काम लखि भाजत।
सरस सुरन सों बंसी टेरैं, मधुर अधर धर।
कोऊ लै बीर अबीर उड़ावत, कोऊ धमार की धूम मचावत।
कोऊ कुमकुम भारन कुच ताकि—कोऊ घूमै लीने कर कर,
श्रीबद्रीनारायन जू पिय, हेरत फिरत आज युवती तिय।
कसक मिटावन हेत फाग—अनुरागे घूमै घर घर।