पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/६२७

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ललित या परच


भाजत रंग डार डार, एहो! जसुमति कुमार! देखो!
इत ठाढ़ी वृषभान की लली।
गावत गाली बनाय, मीठी मुरली बजाय, रोकत पर बागन बन कुंज
की गली।
देखत नहिं तुमरि ओर, राधे मानौ किशोर, बद्रीनारायन लहि भली।

होली—राग धनाश्री ताल धम्मार


छबीली! छीन होत कत छपाकरके सम! छिन छिन छीजत जात।
उड़त गुलाल लाल नभ लखियत, लाल लवंग लहरात।
कल कोकिल कुंजत कुंजन बिच, चित हित सबद सुनात।
बन बागन बगरो बसन अलि, सहित सुसुमन सुहात।
बद्रीनाथ बिलोकत कत नहिं! आव गुलाब प्रभात।

दूसरी


ओ! हो छैल छबीले। रंग जनि डालो कौन तिहारी बान।
पांय परत हूं रसिक रसीले। लै विनती यह जान।
श्री बद्रीनरायन जू पिय, जनि पिचकारी तान।

राग कान्हरा ताल तीन


सखियां फाग के दिन आये रे।
किलकत कोकिल चढ़ि डार डार, धुनि सुनि मुनि मनहिं लुभाये रे।
श्री बद्रीनरायन कविवर गावत रागफाग तिय घर घर।
बन ललित पलास विकास सरस, सोहै गुलाब गहि आवन वल
लखि मधुकर मनहि लुभाये रे।

होली काफी या परच


पाय परो पिय हाय पै माननी तू न मानैं।
नेक नहिं समझै सजनी क्यैं नाहक ही हठ ठानैं।