पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/६४४

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छबि चम्पक की सी अंगन की, दुति कुन्दकली सी दन्तन की;
लाली गुल्लाला अधर छली॥
हैं ललित कपोल अमल कैसे, तापै तिल की शोभा कैसे—
सोवत गुलाब पै जाय अली॥
श्री बदरी नारायन प्यारी, नरगिसी आंख वाली आरी!
छबि तेरी लागति मोहें भली॥
कैसी यह बान सिखी गुय्यां॥टेक॥
छाई ऋतु सरस सुहाय रही, तिह औसर बीर रिसाय रही;
चली री बलि लागति हूँ पैय्यां॥

बगियन मधुकर गन गूँजत हैं, कल कोकिल कुंजन कूँजत हैं
तजि कै अब मान मिलौ सजनी! बदरी नारायन जू सैयां॥

बहार


कैसी यह बान सिखी गुय्याँ, छाइ ऋतु सरस सुहाय रही
तिहि औसर बीच रिसाय रही, चल री बलि लागत हूँ पैयां॥टेक॥
बगियन मधुकर गन गूजत हैं, कल कोकिल कुंजन कूजत हैं।
तजि के अब मान लियो सजनी, बदरी नारायन जू सैयां॥

छन्द अष्टपदी


सजि साज आज आयो बसन्त, सब सरस सुऋतु कामिनी कन्त,
संयोगिन सुरपति सुख समन्त, बिरही जन मानहु समय अन्त;
सजि साज आज॰
सीतल सुभगति संचलित धीर, सनि सौरभ सुखद सुमन समीर,
उन्मादित करि मद मयन वीर, फहरावत अंचल युवति चीर॥
सजि साज आज॰
बिहरत बिहंगावलि व्योम जाय, निज पच्छ पच्छिनी से मिलाय,
कहुँ कुञ्जत कल कुंजन सुहाय, बोलत बोलन मन लै लुभाय,
सजि साज आज॰