पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/६६१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
—६४०—

बृज में चहुँ ओर मची होली।
बजत मृदंग चंग डफ ढोलक झांझ मजीरन की जोरी॥
नाचत ग्वाल बाल रँग राते गावत राग फाग कोरी॥
उड़त गुलाल लाल भये बादर बरसत रँग खोरी खोरी॥
खेलत फाग परस्पर हिल मिल नर नारिन गहि झक झोरी॥
पकरि पर्‌यो सांवरो सखिन कर गहि केसर रँग सों बोरी॥
धै बृषभान लली ढिग लाईं धरी माल मुरली छोरी॥
मलत गुलाल गाल लालन के सुनि गाली राधा गोरी॥
बरसि रहे रस जुगल प्रेमघन करत परस्पर चित चोरी॥

दिखराय दै नेक झलक ऐ री।
आय उतै लगवाय हाय हम भरि लाये गुलाल झोरी॥
बरसावत रंग पिचकारिन सों छिपी प्रेमघन क्यों गोरी॥

तरसाय जनि रूप भिखारी की।
दे दिखाय मुखचन्द टारि टुक प्यारी घूँघट सारी की॥
बरसि आज रस बिहँसि प्रेमघन सौहैं तोहि बनवारी की॥

कबीर


कबीर झर र र र र र र हाँ।
होरी हिन्दुन के घरे भरि २ धावत रंग
सब के ऊपर नावत गारी गावत पीये भंग,
भला—भले भागैं बेधरमी मुँह मोरे॥

कबीर झर र र र र र र हाँ।
पश्चिम उत्तर देश में जुरि जातीय समाज
हर्षित प्रजा कियो पर्‌यो बैरिन के सिर गाज,
भला—भले सब रोवत घूमैं बिलखाने ॥