पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/७४

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कहां गए जे गवित रहे मानधन जन पैं।
गनत न औरहि रहे माल अपने भुज बल तैं॥५८८॥
किते वंश सों हीन छीन अधिकार किते है।
किते दीन बनि गए भूमि कर औरन के दै॥५८९॥
जे नछत्र अवली सम अम्बर अवध विराजत।
रहे सरद रजनी साही मैं शुभ छबि छाजत॥५९०॥
ऊषा अंगरेजी मैं कहुं कहुं कोउ जे दरसैं।
हीन प्रभा द्वै अतिसय नहिं ते त्यों हिय हरसैं॥५९१॥
भयो इलाका कोउ को कोरट के अधीन सब।
बंक तसीलत कितौ, महाजन कितौ कोऊ अब॥५९२॥
कोऊ मनीजर सरकारी रखि काम चलावत।
पाय आप तनखाह कोऊ विधि समय बितावत॥५९३॥
कैदी के सम रहत सदा आधीन और के।
घूमत लुंडा बने शाह शतरंज तौर के॥ ५९४॥
कहुँ २ कोउ जे सबही विधि सम्पन्न दिखाते।
नहिं तेऊ पूरब प्रभाव को लेस लखाते॥५९५॥
पिता पितामह जैसे उनके परत लखाई।
जैसी उनमें रही बड़ाई अरु मनुसाई॥५९६॥
सों अब सपनेहुँ नहिं लखात कहुंधौ केहि कारण।
पलटी समय संग सब देश दशा साधारण॥५९७॥
जैसे ऋतु के बदलत लहत जगत और रंग।
बदलत दृश्य दिखात रंगथल ज्यों विचित्र ढंग॥५९८॥
त्यों रजनी अरु दिवस सरिस अद्भुत परिवर्तन।
चहुँ ओरन लखि जात न कछु कहि समुझि परत मन॥५९९॥
रह्यो जहां लगि बच्यो अवध को साही सासन।
रही बीरता झलक अजब दिखरात चहूंकन॥६००॥
रहे मान, मर्यादा दर्प, तेज मनुसाई।
इत आत्मा रच्छा चिंता बल करन लराई॥६०१॥