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पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/७५

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सहज साज सामान शान शौकत दिखरावन।
बने बड़े जन पास भेद सूचक साधारण॥६०२॥
शान्त राज अंगरेजी ज्यों २ फैलत आयो।
सबै पुरानो रंग बदलि औरै ढंग ल्यायो॥६०३॥
ऊँच नीच सम भए, बीर कादर दोऊ सम।
बड़े भए छोटे, छोटे बढ़ि लागे उभरन॥६०४॥
लगीं बकरियां बाघन सों मसखरी मचावन।
धक्का मारि मतंगहि लागी खरी खिझावन॥६०५॥
रही बीरता ऐड़ इतै जो सहज सुहाई।
जेहि एकहिं गुन सों पायो यह देस बड़ाई॥६०६॥
ताके जात रही नहिं इत शोभा कछु बाकी।
वीर जाति बिन मान बनी मूरति करुना की॥६०७॥
जिन बीरन कहँ निज ढिग राखन हेतु अनेकन।
नित ललचाने रहत इतै के संभावित जन॥६०८॥
भाँति भाँति मनुहार सहित सत्कार रहत जे।
आज न पंछत कोऊ तिन्हें बिन काज फिरत वे॥६०९॥
रहे वीर योधा ते आज किसान गए बनि।
लेत उसास उदास सर्प जैसे खोयो मनि॥६१०॥
रहे चलावत जे तलवार तुपक ऐंडाने।
आजु चलावहिं ते कुदारि फरसा विलखाने॥६११॥
जे छांटत अरि मुंड समर मह पैठि सिंह सम।
कड़वी बालत बैठि खेत काटत बनि बे दम॥६१२॥
रहत मान अभिमान भरे सजि अस्त्र शस्त्र जे।
सस्य भार सिर धरे लाज सों दबे जात वे॥६१३॥
भेद न कछू लखात बिप्र छत्री सूदन महँ।
समहिं बृत्ति, सम वेष समहिं, अधिकार सबन कहँ॥६१४॥
चारह बरन खेतिहर बने खेत नहिं आंटत।
द्विज गन उपज्यो अन्न अधिक हरवाहन बांटत॥६१५॥