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पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/७६

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करत खुसामद तिनकी पै न लहत हरवाहे।
मिलेहु न मन दै करत काज अब वे चित चाहे॥६१६॥
करत सबै कृषि कर्म न पै हल जोतत ये सब।
बिना जुताई नीकी अन्न भला उपजत कब॥६१७॥
सम लगान, ब्यय अधिक, आय कम सदा लहत जे।
दीन हीन ताही सों नित प्रति बने जात ये॥६१८॥
नहिं इनके तन रुधिर मास नहिं बसन समुज्ज्वल।
नहिं इनकी नारिन तन भूषण हाय आज कल॥६१९॥
सूखे वे मुख कमल, केश रुखे जिन केरे।
वेश मलीन, छीन तन, छबि हत जात न हेरे॥६२०॥
दुर्बल, रोगी, नंग धिडंगे जिनके शिशु गन।
दीन दृश्य दिखराय हृदय पिघलावत पाहन॥६२१॥
नहिं कोउ सिर टेढ़ी पाग लखात सुहाई।
बध्यों फांड? नहिं काहू को अब परत लखाई॥६२२॥
नहिं मिरजई कसी धोती दिखरात कोऊ तन।
नहिं ऐडानी चाल गर्व गरुवानी चितवन॥६२३॥
नहिं परतले परी असि चलत कोऊ के खटकत।
कमर कटार तमंचे नहिं बरछी कर चमकत॥६२४॥
लाठी हूं नहिं आज लखात लिए कोऊ कर।
बेंत सुटकुनी लै घूमत कोउ बिरलेही नर॥६२५॥
पढ़ि २ किते पाठशालन मैं विद्या थोड़ी।
परम परागत उद्यम सों सहसा मुख मोड़ी॥६२६॥
ढूंढत फिरत नौकरी जो नहिं कोउ विधि पावत।
खेती हू करि सकत न, दुख सों जनम वितावत॥६२७॥
चलै कुदारी तिहि कर किमि जो कलम चलायो।
उठे बसूला, घन तिन सों किमि जिन पढ़ि पायो॥६२८॥
अंगरेजी पढ़ि राजनीति यूरप आजादी।
सीखि, हिन्द मैं बसि, निरख्यो अपनी बरबादी॥६२९॥