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पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/९०

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जिनमें जात लखात अनोखी बात।
सुखद परस्पर सुंदरता सरसात॥
कोउ मैं कोमल किसलय सेज सुहाय।
रहे सुगन्धित सुमन तल्प कहुँ भाय॥
फटिक सिला सिंहासन कहूँ अनूप।
जासु चतुर्दिक बैठक बहु अनुरूप॥
कोउ की तरु शाखा झुकि रही सुहाय।
अति उज्ज्वल कोमल टहनी न बिहाय।
सोवन झूलन कोऊ बैठिबे जोग।
अतिहि लचीली अति प्रलम्ब बिन रोग।
राजत जिन में कहुँ अनेक कहुँ एक।
सुर बालन सों न्यून कोऊ नहि नेक॥
रूप शील गुन भूषन बसन विधान।
सब बिधि सब सों सरस सबे सहमान।
सबै रूप गरबीली युवति सयानि।
सबै प्रेम रंग माती जाती जानि॥
कोऊ सितार बजावत कोऊ बीन।
कोउ सरोद कोउ सुर सिंगार कुच पीन।
मधुर बजावत गति कोउ कोऊ बोल।
जोड़ तोड़ कोउ करत कलित कर लोल।
कोमल तेवर सप्त सुरन संधान।
आरोही इमरोही वर बन्धान॥
मधुर मूर्च्छना गन ग्रामन के भेद।
सरस सुनाय देत सारद उर खेद॥
कोउ सुगन्धित सुन्दर सुमन सवांरि।
बनवत बिबिध अभूषन सुमुखि सुधारि॥
कोउ सुसज्जित करत नवल सिंगार।
कोउ कोउ मग ताकत झांकत द्वार॥