पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/९१

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मान मानि कोउ तानि भौहँ सतराति।
पास न कोउ तौ हू रिस करि बतराति॥
कोऊ काहूँ सों मिलि करत सलाह।
कोउ कर जोरि कहत तुअ हांथ निबाह।
कोउ कोउ लखि नैननि रहीं तरेरि।
कछु सुनि कोउ सतराती भौंह मुरेरि॥
कोउ कोउ सों मिलि घुलि घुलि बतरात।
भूलि भूलि सुध करि कहि कछु सतराति॥
कोउ कोउ सों कछु पूछति हँस गहि पानि।
सुनत अयान बनत सी सुमुखि सयानि॥
कोऊ जान न पावत बरजत बाल।
कहुँ कोउ छिपत कोऊ लखि गोपत हाल॥
कोउ झिझकारत कोउ कह सौ सौ बार।
कोउ बिनवत कोउ विरचत सिथिल सिँगार॥
कोऊ सिखावत कोउ कछु अति हित मानि।
कोउ गहत कोउ भागत जानि लजानि॥
कोउ बुलावत कोउ कोउ देत न कान।
कोउ कोउ ताकत जस न जान पहिचान॥
जिनकी लीला लखि लखि रही लजाय।
काम बाम बावरी बनी बिलखाय॥
जो सखि जामै निवसत ताके नाम।
सो प्रसिद्ध ये अहैं कुञ्ज अभिराम॥
कोउ राधा कोउ चन्द्रावली निकुञ्ज।
कोऊ विशाषा कोउ ललिता छबि पुंज।
ऐसे कहँ लगि नाम गनाये जाहिँ।
सहसन कुञ्ज बने छबि पुंज सुहाहि।
या प्रलम्ब के छोर ओर छबि छाय।
रहो महाबन अद्भुन सुखद सुहाय॥