पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/९२

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जाकी रचना दैवी दिपति दिखात।
विटप विदेशी जामै सबै सुहात॥
अहै शालबन अति विशाल जा बीच।
अति प्रशस्त पुहुमी कहुँ ऊँच न नीच॥
अति उज्ज्वल जित कहूँ न तृण को नाम।
कबहुँ कछु कैसहु घुसि सकत न धाम॥
जामै कोसन लों खग उड़त लखाहि।
विचरत गज नहिँ शाखा परसि सकाहिँ॥
भृङ्गराज खग जित घोसले बनाय।
बिगत ब्याल भय निवसत जित हरषाय॥
बोलत बोल अमोल सरस सुर संग।
सुनि बुलबुल बोसतां होत जिहि दंग॥
बोलत हरदो बन कलरवित बनाय।
नाचत मत्त मयूर चितै चकराय॥
शुक सारिका हरेवा अगिना आय।
श्यामा दामा लाल रहे भल गाय॥
जिते सुरीले खग संकुल जग माहि।
भरत गिटगिरी ते सब तहां लखाहिँ॥
दिन दुपहर जो टहरत बिहरन काज।
आवत जुरत जहां के कबहुँ समाज॥
जाके चारहुँ ओर अनेक प्रकार।
बनि प्राकाराकार बनाय कतार॥
भोजपत्र कहुँ देवदार तरु ठाढ़।
नारिकेलि खजूर ताल मिलि गाढ़॥
बीच छोहारा जायफरन तरु राजि।
सुभग सुपारी चन्दन सुखमा साजि॥
या बिहार अवनी समन चहुँ ओर।
लगी कोट प्राचीर सरिस अति घोर॥