बेंतरि गझिन कटीले वृच्छनि केरि।
सब थल अम्बर मनहुं घटा घन घेरि॥
शमी खदिर रीवा बबूल बहु बाँस।
बैर करवंदे हैस सिंहोर अनास॥
विछ्या सेहुँड गज चिंघार जुतखार।
बन्यो दुर्ग मय सटि प्राकार प्रकार॥
जिन पर कंजा बनबसवा की बौरि।
चढ़ी केवांच करेरुअन संग भरि भौंरि॥
गझिन बनावत अमर बेलि बनि जाल।
बुलबुलखाना बिम्ब सहित फल लाल॥
बाहर मधुर मकोय मकोयचा झालि।
भोला करियारी कौवारी लालि॥
भरभन्डा भटकैया फूले फूल।
नीचे गुखुरू बिछे पथिक पग सूल॥
सोहत बाहर हरित करील कतार।
नीचे फूले फले धतूर मदार॥
भेदि जाय नहिँ सकत जाहि कोउ जीव।
पवन हलै न छुद्रहू छिद्र अतीव॥
बीच द्वार द्वै राजत दोऊ ओर।
इक जमुना दूजो बृजबीथी छोर॥
द्वै २ विटप कदम्ब दुहू दिसि दोय।
गोपुर बनयो दोऊ मिलि इक होय॥
पहुँच्यो तहँ रथ त्यागि द्वारसों दूर।
प्रविस्यो भीतर कौतुक बस अक्रूर॥
घूमन लग्यो तहां सुधि बुधि बिसराय।
द्वै गन्धर्व परे जहँ ताहि लखाय॥
जान्यो जासों सब या थल को हाल।
हरख्यो हिय अति द्वै कृतकृत्य कमाल॥
पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/९३
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