पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/९८

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सुनि मुरली तजि काम, दौरें सब निज भवन तजि।
वृद्ध बाल नर बाम, निरखन हित घनस्याम छबि॥५॥
नन्द यशोदा संग, चले झपटि अक्रूर है।
रंगे प्रेम के रंग, इक टक मन लागे लखन॥६॥
गोधूली गझिनाय, धूली गो पग उड़ि गगन।
रजनी रही बनाय, दै छबि अवनि अकास की॥७॥
तरइन सी छितिराय, सोह्यो सुरभि समूह सित।
मध्य रह्यो मन भाय, चन्द बन्यो बृजचन्द मुख॥८॥
हरि वियोग तम रासि सींचन सुधा संयोग जनु।
लोचन सहस विकासि, दियो मनहुँ कैरव कुलहिं॥९॥
वृज जन मन हुलसाय, दियो अमित आनन्द भरि।
जनु सागर लहराय पेखत पूनौ सुधा धर॥१०॥
लै लै कंचन थार, सजी आरती के रहीं।
गोपी निज २ द्वार, बार २ मन वारि कै॥११॥
रुकत चलत गति मन्द, द्वार २ पूजा लहत।
नन्द नंदन सानन्द, पहुँचे निज गृह पौरि पर॥१२॥
वारत राई नोन, जननि जसोदा मुदित मन।
करित आरती सोन, मुहर निछावरि करि कहत॥१३॥
आवहु मेरे प्रान, उर लगाय चूमत मुखहि।
चह्यो भवन लै जान, कृष्ण और बलराम कहँ॥१४॥
पै अक्रूर निहारि, पहुँचे ते ताके निकट।
पूजनीय निरधारि, करि प्रणाम पायनि परे॥१५॥
उर लगाय अक्रूर, अकथनीय आनन्द लहि।
भरयो हियो भरपूर, लग्यो असीसन बार बहु॥१६॥
कह्यो नन्द हरखाय, “चचा तुम्हारे ये अहैं।
इत मथुरा सों आय, कियो कृतारथ आज मुहि॥१७॥
अब गृह भीतर जाहु, कर पग मुख धोबहु दोऊ।
स्वस्थ होय कछु खाहु, तब आवहु बातें करहु॥"१८॥