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गुप्त गोष्ठी गाथा



आप किसी गुण-हीन पुरुष से तो मिलते ही नहीं, चाहे वह कैसा ही असाधारण धनी, अधिकारी, वा प्रतिष्ठित क्यों न हो; किन्तु सजन, गुणी, पण्डित, साधु, भक्त वा दीनों से संलाप करते करते ऐसे हिल मिल जाते कि अपने स्वरूप को भूल केवल समान मित्र भाव, का अवलम्बन कर लेते हैं। मैं जब उनके यहाँ जाता और उन तक पहुँचने पाता तो चार चार आठ दिन तक वहीं का हो रहता, न आने पाता न जी ऊबता है क्योंकि यही अनुभव होता कि कंदाचित् स्वर्ग का सुख भोग रहा हूँ। और भी जो मित्र वर्ग आ जाते तो उनकी भी यही दशा होती, दस दिन लौं जमघट जमा रहता। सब प्रकार की सुख सामग्री वहाँ उपस्थित रहती है, और परम रम्य एकान्त स्थान है इसी से प्रायः हम लोगों का भारी जमावड़ा वहीं हुआ करता है।

आप नगर में तो बहुत ही न्यून आते, और पाते भी तो सन्ध्या के उपरान्त एकाकी केवल किसी मित्र वा अपने किसी कृपा पात्र के यहाँ। आप कभी कभी हम दीनों की झोपड़ियों को भी सुशोभित कर देते। हम लोग लज्जित होते कि उनका क्या और कैसे सत्कार करें, जिसे देख वे दुखी होते, क्योंकि वे समान भाव से मिला चाहते, बहुत आदर से चिढ़ते हैं, और अपने में राजकुमार के भाव लाने से रुष्ट हो जाते, और सर्वदा समभाव रखते और कहते कि हम इसी लिए तुम लोगों के यहाँ नहीं पाते कि तुम लोग व्यर्थ का बखेड़ा करते हो।

उन्हें सूखी रोटी दे देते तो खाकर प्रसन्न हो जाते, और चटाई पर भी सो रहते, इसी भाँति दो दो चार चार दिन रह भी जाते तो यूँ नहीं बनाते, वरञ्च ऐसे प्रसन्न दिखलाते कि जैसे उनके घर हम लोग भी नहीं, इस भाँति जब उनका समागम और संघट्ट होता तो जिसकी चर्चा चल पड़ी उसका सर्वानाश सार वहीं से उन्होंने निकाल कर ऐसा दरसा दिया कि फिर कहीं से कुछ भी शङ्का का लेश न बच रहा और केवल दुराग्रहियों के अतिरिक्त किसी को भी जिह्वा सञ्चालन की आवश्यकता ही न रह गई। जिस कारण हम सब में से कइयों को उन्हीं की सम्मति पर अपने सिद्धान्त को हद कर लेने का स्वभाव सा पड़ गया है।

जब कभी वे अपने मनसे किसी विद्या वा अन्य किसी सुन्दर विषय पर व्याख्यान सुनाते, तो मानो सुधा विन्दु बरसाते। जब अपनी कविता वा कोई पुस्तक सुनाते तब तो फिर जिस विषय को उठाते तो सुनने वालों की तदा