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प्रेमघन सर्वस्व

एकान्तालय के लिये नियत और अनेक यथा ईप्सित स्थान पर पहुंचाने के लिये है, सारांश उस सभा में बैठने वाले विशेष व्यक्तियों के आवश्यक कृत्य के दूर करने को वहीं सब सामग्री सदा प्रस्तुत रहा करती। फिर कहिये कि उस मण्डली की जिसने यह अलौकिक लीला देखी, उसे फिर कहीं क्यों आनन्द आने लगा। होली के दिल्लगी भरे पत्र ही में लिखा आता "मंगल में अवश्य आइयेगा, घर की किश्ती पर अबकी विशेष आनन्द की आशा है"।[१]

चार दिन प्रथम न्योते का छपा कार्ड पहुंचा दूसरे दिन फिर पत्र आया कि नहीं नहीं यह कदापि नहीं हो सकता आप न रहेंगे तो फिर भला आनन्द ही क्या आयेगा, चार दिन में कौन हर्ज हुआ जाता है, आप को हमारी कसम अवश्य ही आइये। मज़ा किरकिरा न कीजिये। अब तार पर तार पाने लगे। लाचार हज़ार हर्ज करके जाना ही पड़ता था। वहाँ पहुंच कर सुध बुधगवाना ही पड़ता, और चार दिन के बदले सोलह दिन काशी में बिताना ही पड़ता था। अस्तु इस चन्द्र[२] के अस्त होने पर आनन्द की आशा से अब उस अंधेरी काशी में बिना किसी आवश्यक कार्य के अनुरोध से जाने की इच्छा क्यों होने लगी, और फिर बुढ़वा मङ्गल के देखने की इच्छा का तो प्रसंग ही क्या है। संयोगात् एक बार इस अवसर पर पहुँच भी गये और कई एक मित्रों के आग्रह से मेला भी देखा। एक मित्र ने बड़ी तय्यारी से अपनी किस्ती भी सजाई थी। परन्तु केवल बेगार सी टालनी पडी, आनन्द का लेश भी न मिला, और मन को यही मान लेना पड़ा कि बस इस मेले के गौरव को हमारे मन से भुलाने वाला कदाचित यही अन्तिम मङ्गल का मेला है।

हमारे पाठकों में से अनेक जन कह उठेंगे कि आपने इस वर्ष के मेले का वृत्तान्त सुनाने का न्यौता दिया था, यह प्राचीन पचड़ा परसना क्या प्रारम्भ कर दिया। हाँ, ठीक है 'भरी है सीनये सोजा में आतिश इस कदर ग़म की! कि ठंढी साँस भी लूँ तो मेरे मुँह से धुआँ निकलें"। बहुतेरा चाहते हैं कि उन बातों को भूल जाय, पर जिला सबी अवसरों पर कुछ न कुछ उसी मंडली की वर्चा छेड़ बैठती है। किन्तु बुढ़वा मङ्गल के साथ पुरानी कथा के मेल मिलन से यहाँ कुछ अधिक अनुचित नहीं हुया एवम् श्रापने एक ऐसे अपर्व जमघट का वृत्तान्त भी जान लिया कि जो केवल इसी लेख द्वारा सुलभ था।


  1. भारतेन्दु जी ने यह लिख कर भेजा था।
  2. भारतेन्दु जी।