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बनारस का बुढ़वा मंगल

आये। खैर बूटी छनी रक्खी है, पीते जाइये, और चलते जाइये, क्योंकि वक्त बहुत तङ्ग है" और यह कह सबसे कुशल प्रश्न पूछ, गृही मित्र तो हम लोगों के आतिथ्य में लगे, और हम लोग अपने पथ श्रम को दूर करने तथा चित्त को पुनः भला चङ्गा बनाने के यत्नमें, कोई भङ्ग पीता, तो कोई हाथ में धोता कोई नहाने तो कोई कुछ खाने लगता। निदान जब तक स्वस्थ हो कपड़े, पहनने लगे तो ज्ञात हुआ कि वह लखनऊ निवासी चुल बुले चित्त वाला मित्र तो धीरे से एक गाड़ी पर बैठ कहीं खिसक दिया कुछ बिलम्ब तक तो वाट देखनी पड़ी पर मला वह क्यों आने लगा। हाट देखा, बाट देखा, और एक एक घाट छान डाला, पर वह न मिला और न मिला। अस्तु निराश हो, मेला देखने का सिद्धान्त स्थिर करना पड़ा और एक नौका भाड़ा कर राज-घाट से अस्सी तक का चक्कर लगाना प्रारम्भ किया।

काशी के पूर्व छोर से लेकर पश्चिम पर्यन्त के प्रत्येक घाटों पर जो अनुमान ढाई तीन कोस के विस्तार में होंगे, काशिराज और नगर प्रतिष्ठित महाजनों से लेकर, मदन पुर के जुलाहों तथा श्मशान के डोमड़ों तक की नौकायें निज शक्ति और श्रद्धा के अनुसार सुसज्जित देख पड़ने लगीं। संख्या भी उनकी और वर्षों की अपेक्षा अधिक है कोई पटैले पर बाँसों के ठाट ठाटे हैं, तो कोई वटहा पाटे हैं, कोई बजड़े पर झाड़ फानूस की सजावट कर नाच नाच देखता, तो कोई मोर पङ्खी सजाये अपना अखाड़ा ला खड़ा किये हैं, किसी ने कोई छोटा मोटा कटर भाड़े कर रंगीन चोव वा तूल लपेट कर गोटे की लहरिया देकर कालरदार बाँदनी तान चार ठो हाँडी नाँद जला कर उजाला किये अपनी सूरत और झलामल कपड़ों की सजावट ही दीखाता घूमता, तो कोई एक पनसुही पर सवार नांच वाली नौकाओं की ताक में डोलता फिरता मानो मेले में भिक्षा सी माँग रहा है। विशेषतः काशी के बड़े नाम और बराने वाले महाजन और रईस प्रायः इसी श्रेणी में रहा करते हैं क्योंकि पाठ से रुपया ख़र्चा जाता नहीं और फिर शौक इतना कि बिना मेला देखें भी नहीं रहा जाता। कोई साल भर तक इसी लालसा से थानेदारों से साहब सलामत किये, मुफ्त में पुलीस को किस्ती पर चढ़े मेले का प्राण सा निकालते घूमते हैं। कोई दो चार लैम्प जलाये दस पाँच कुर्सी बिछाये काली पतलून ओर जाविष्ट जमाये गड्डामियरी सूरत बनाये मुंह में चुरुट सुलगाये, धुओं कस की, समा लाये, गिटपिट गिटपिट अंग्रेजी बोलते, साहिब लोगों का स्वाँग सजाये, अपना ही तमाशा औरों को दिखला रहे हैं। कोई