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प्रेमघन सर्वस्व

अपने खाने पीने के लिये कुछ उद्योग तो सर्वथा व्यर्थ और असम्भव है, और विशेषतः कुछ आवश्यकता भी नहीं है। हाँ यदि सोने के लिये इतना स्थान सुरक्षित रहता तो रात्रि के जागरण से तो बचते; अतएव यहाँ से टसकना भी उचित नहीं, उठते ही कदाचित इस जगह से भी हाथ न धोना पड़े। अपना जाना जब यो दुरूह था तब सेवकों का यहाँ तक आना कब सम्भव है, सुतराम् अब यही राम का नाम ले आराम करने का प्रारम्भ करना चाहिये, कदाचित् भीड़ और बढ़ जाय। इतने में देखते हैं कि बाबू साहिब एक अन्य व्यक्ति को साथ लिये उसकी सन्दूक और गठरी मोटरी ढकेल ढकेल कर वेच्चों के बीच की जगह भी भर रहे हैं। देखा कि यह तो अपने यहाँ का एक पुराना कार्यकर्ता और एगाना है, जो पाकर प्रणाम कर कहने लगा, कि "मैं समझता था कि आप अवश्य ही इस गाड़ी में पधारेंगे। स्वैर यह सब तो फिर कह लूगा, यदि कुछ जलपान करना हो तो लोटे में शुद्ध जल प्रस्तुत है, और मिठाई भी बहुत अच्छी पास है।" मैंने कहा कि इस समय तो आवश्यकता नहीं है। उसने कहा कि—"नहीं कल के लिये भी तो ध्यान रखना चाहिये। न जाने का कुछ मिलेगा या नहीं।" निदान उसके हठ पर दो मिठाई खाकर एक गिलास पानी पीकर जो खाली हुआ, कि नवाब साहिब भी रूमाल से, पोछते पहुँच ही तो गये। कहा, कि "ले अब चलिये बर्थ" क्योंकि नीचे तो ठिकाना ही न रहा। निदान हम दोनों ऊपर पहुँचे श्रय उनकी मिहरबानी भरी और इहसानमन्द बनाने वाली बातों का क्या क्या बयान किया जाय कि मैं चित्र में सोचने लगा, कि-यह तो मानो हमारे मित्र लखनऊ के नवाब साहिब की पूर्ति के लिये कदाचित् भगवान ने इन्हें भेज दिया है। प्रस्तु, बड़ी-बड़ी मजेदार बातें आधी रात तक होती रहीं। नवाब साहिब बड़े अच्छे और रसीले सज्जन समझ पड़े। उधर नीचे बाबू साहिब ने जो उक्त आगन्तुक व्यक्ति को पाया तो यह ऐसे चहक चले कि जैसे बसन्त का बुल्बुल और इधर नवाब साहिब कोकिल बन कूजने लगे। बात उनकी दिल लुभाने वाली हो चली और अब नये मुसाफिरों से भरी कई नई गाड़ियाँ जोड़ रेलगाड़ी भी चली। पास की कोठरी के पलंग पर बैठे एक अन्य बङ्गाली महाशय ने हारमोनियम निकाल कर बंजाना प्रारम्भ किया और सब प्रकार अब “यात्रा सुखदाई चने लगी। बहुत देर तक जमने के ' उपरान्त निद्रादेवी भी आ गई और रात भर आनंद दे कर सूर्योदय देख करें. तब टल्ली)