पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 2.pdf/१८१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१४९
दिल्ली दरबार में मित्रता मण्डली के यार

परन्तु इन गाड़ियों में तो नीचे और ऊपर के तख्तों के बीच कही तिल धरने को भी जगह वास्तव में न थी। और आनन्द यह कि आने वाले तो प्रत्येक स्टेशनों से और उतरने वाला कहीं कोई भी नहीं। हाथरस तक तो किसी प्रकार हाथ पैर भी हिलाया जा सकता था। पर अलीगढ से तो मानो गाडीगढ़ पर अली से वीर सैनिको का आक्रमण प्रारम्भ हुआ। गाजियाबाद में पहुँचते पहुँचते गाजी बनने बनाने का सा दुख अनुभव होने लग। अथवा यह कहिये कि मानो रेल गाडियाँ सिराजुद्दौला की कालकोठरी बन गई थी। अनुमान होने लगा कि मानो रेलवे कम्पनियों उस दुख और कष्ट को, जो उनकी जाति पर भारत मे साम्राज्य उत्सव के अवसर पर दिल्ली जाने वाली अग्रेजी प्रजा को अनुभव करा देना आवश्यक जानकर इस प्रबन्ध में कृतकार्य हो रही हैं। वास्तव में यदि इस भॉति दो चार घण्टे और यात्रियों को गाड़ी मे बैठा रहना पड़ा तो निश्चय अधिकॉश मनुष्य मर गये होते, बीमार तो न जाने कितने हो गये होंगे।

निदान इस प्रकार अभूतपूर्व दु.ख से कातर मनुष्यों से भरी रेलगाड़ी शहादरा पहुँची। गाड़ी खड़ी होते ही और शहादरा स्टेशन का नाम सुनते ही मानो शरीर मे प्राण आ गया। दुःख दूरसा हो गया और अकथनीय आनन्द प्राप्त हुआ! मन ही मन में ईश्वर को धन्यवाद देता उतरने की चेष्टा करने लगा। किसी प्रकार गाड़ी की खिडकी भी खुली और नीचे के खड़े लोग हवा के प्यासे बाहर भी निकल पड़े जिससे उतर पड़ना भी सम्भव हुआ और मैं राम राम कह गाड़ी छोड़ जमीन पर आया। देखता हूँ,किन वहाँ प्लेटफार्म है न स्टेशन का पता। मेरे साथ कुछ सबान्न अधिक न था, तो भी जो था उसे हूद दूढ कर मेरे मिजोंपुरी साथी ने ला दिया। विदेशी सज्जनों ने भी दूढने मे सहायता की, क्यों कि स्वाभाविक सज्जनता को छोड़ एक आदमी का भी गाडी से उतरना मानों सब यात्रियों को उस समय पर अनुग्रहीत बनाना था। मैं अहाईस घटे गाडी पर बैठा जकड़ उठा था, टहलने लगा। बदइन्तजामी यहाँ तक बढ रही थी कि गाडियों में भी रोशनी नही थी, तब और स्थान की कौन चलावे। जहाँ तक दृष्टि जाती थी कह-कहा दीवार सी गाडी ही गाडी नजर आती थी। इतनी बड़ी ट्रेन कभी काहे को देखने मे आई थी। कुछ देर बाद वह चली, मानो विपचि टली। ऐसा अनुमान होता था मानो उजद्धी दिल्ली बसाने के लिये मनुष्यों से भरे असल्य गृह, वा किसी