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प्रेमघन सर्वस्व

नगर का एक प्रान्त, ढकेला चला जा रहा है, और लोग जन्मभूमि बियोग दुख से घोर कोलाहल कर रहे हैं। टहलते टहलते देखने लगा कि थोड़ी दर पर कुछ प्रकाश हुआ, उधर ही को चला। सोच रहा था कि देखें अपने सेवक सब असंबाब के साथ उतर सके या दिल्ली पहुँचे। देखते हैं कि लालटेन जलाये एक मेरा खिदमतगार पूर्वोक्त मेरे प्रिय मित्र (साम्प्रतिक नायब तहसीलदार) मसीहा की सूरत ख्वाजः खिजिर बने वा मुश्किल कुशा से चले आते हैं। मैं उस जनशून्य स्थान में उन्हें देख सचमुच मसीहा और मुशकिलकुशा मान सम्मान पूर्वक आगे बढ़ा। मुस्कुरा कर उन्होंने कहा, कि "चलिये आप के नौकर मय कुल असबाब के उतार लिये गये। हमारे सकिल के कमिश्नर साहिब का डेरा इसी पार खड़ा है, उनके शरिस्तादार साहिब जो कि मेरे मित्र और आप के सजातीय और पूर्ण परिचित हैं, यहाँ से पास ही उसी डेरे में ठहर रहे है, मैंने उन्हें अपने आने का समाचार लिखा था, अतः उन्होंने अपना जमादार मेरे लेने को भेजा था, मैंने उसे कुली आदि लाने और असबाब उठा कर वहीं पहुँचाने को कह कर आपको लेने आया हूँ, चलिये आप वहीं चले चलिये।" मैंने कहा, कि टिकट का क्या हुआ। उन्होंने कहा कि "मैं सब दे दिला आया, आप निश्चित चलिये।" यों बाते करते करते हम लोग असबाब के पास पहुंचे।

देखा कि कई कुलियों के सिरपर असबाब लदाये जमादार साहिब चलने पर उद्यत हैं। हम लोग आगे बढ़े और वे लोग भी चल कर स्टेशन पर पहुँचे। स्टेशन का प्लेटफार्म और उसकी बाहरी सहन, कुप, वृक्षाति से युक्त अच्छी थी। मैंने आदमियों से कहा, कि असबाब तब तक ले कर यहीं ठहरो और यह भी दर्याप्त कर रक्खो कि यहाँ कौन कौन सी आवश्यक वस्तु लभ्य हो सकती है। मैं अपने उन स्वनगरागत माननीय मित्र का पता लगा कर तुम्हें बुला भेजता हूँ। निदान मैं और एक लालटेन वाला सेवक नायब तहसीलदार और जमादार को साथ लेकर ईद हारा पर मित्र कहाँ मिलते हैं। किसी कवि का कथन याद आने लगा, कि "खुदा मिले तो मिले आशना नहीं मिलता।" सुना कि आजही शामको वह कहीं दिल्ली में ठिकाना लगा, डेरा डण्डा उठा जा पहुँचे। सोचा कि जब यहीं वह न मिले, तो दिल्ली में कहाँ सम्भव है। अतएव उनसे अब निराश होना चाहिये।

नायब तहसीलदार साहिब कुढ़ कर कहने लगे, कि. मैं आपसे पहिले