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प्रेमघन सर्वस्व

एक भारी तप्ता जलाकर आवश्यक कृत्य का आरम्भ हो चला। एक ओर चूल्हा चौका का कार्य चलता, तो दूसरी ओर पानी गर्म होता, रात को जाड़ा यद्यपि चमक चला था, तौभी वायुका चलना बन्द था, जिस कारण उस खुले मैदान में रात्रि के समय कष्टपूर्वक भी हम लोग अपने अपने आवश्यक कृत्य का निर्वाह कर सके और इस जन्म में एक दिन पश्चामि तापने का यश ले सके। दस बजे के बाद हम भोजन करके अपने बिस्तर पर आ लेटे। भोजन के प्रारम्भ ही से वायु संचार हो चला था, जिस कारण से पञ्चाग्नि के सहारे से भोजन करना परम दुःसाध्य हो गया था। निदान अब खूब कपड़े पहिन कई कम्बल और रजाइयों के नीचे आ दबके। कुशल यह था कि यहाँ शीत और वायु का भी बचाव था, इसी से बहुत देर के बाद शरीर गर्म हो पाया। आवश्यक कृत्यों से निवृत्त होने पर बुद्धि भी ठिकाने आ गई थी, नौकर भी खा पी कर गये थे, बारह बज चुका था; मैं उस समय की 'दशा देखने के अभिप्राय से उठ बैठा, देखा कि अद्भुत सुनसान का समा है, कहीं से कोई शत्रु नहीं करता है, मेरे नौकर कपड़े पहिने रजाई ओढ़े हुये भी काँपते बड़ी दरी खोल कर ओढ़ रहे हैं। इतने ही में एक स्पेशल ट्रेन आई और चली गई। यह भी नहीं मालूम होता था कि वह मालगाड़ी है या सवारी। क्योंकि एक भी खिड़की नहीं खुली थी और न कोई उतरने चढ़ने वाला और न बोलने वाला था।

लौटते हुये स्टेशन मास्टर पास आये और सहानुभूति दिखला कहने लगे कि "और मैं आप का यहाँ क्या हित कर सकता हूँ?" मैंने पूछा कि अब दिल्ली को सवेरे गाड़ी की जायगी, और मैं वहाँ किस समय तक शीघ्र पहुंच सकँगा। उन्होंने कहा कि "गाड़ी तो दिल्ली को आज कल एक घन्टे में भी कई जाती हैं, सवेरे भी कई गाड़ियाँ जाएँगी, आपको भी अकेले दुकेले में भेज सकता हूँ, परन्तु इतने असबाब का साथ ले जाना तो महज गैर मुमकिन है। फिर वहाँ के स्टेशन से इसे दूर तक ले जाने में बनिस्बत यहाँ के जियादा ही तरहद और सर्फा भी पड़ेगा। सुबह यहाँ घोड़े गाड़ी, इक्के, ठेले, बैल गाड़ी सब मिल जायगी, आप खातिरख्वाह इन्तजाम कर सकेंगे अगर असबाब साथ लिये यों चले जाइये, तो सब तरह सुबीते में रहियेगा।" कहकर वह तो लाल्टेन मुलाते चल्ते हुए और मैं ढक कर उन्हीं के उपदेश को उचित और अनुकरणीय समझ सो रहा।