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दिल्ली दरबार में मित्र मण्डली के यार


प्रभात यद्यपि निद्रा छही बजे खुल गई, तो भी सात बजे रजाई छोड़ने की हिम्मत नहीं पड़ती थी। दिल कड़ा करके सात बजे में उठ खड़ा हुआ और खूब गर्म कपड़े लादकर तथा आवश्यक सामग्री सेवकों पर लाद कर शारीरिक नित्य कृत्य के लिये प्रस्थित हुआ और अपने एक प्यादे को सवारी और बारबरा ठीक करने को भेज दिया। नौ बजे आकर जो देखा तो एक बैलगाड़ी खड़ी है, प्यादे ने कहा कि सिवा इसके न तो दूसरी बैलगाड़ी, न ठेला, न इक्का, न बोड़ा गाड़ी ही मिली, इतनी देर तक ढूढ़ कर थक नया" मैंने कहा, कि खैर, तुम लोग इसपर अपवाव लाद चलो और मैं प्लेटफार्म पर टहलने लगा, अब स्टेशन मास्टर आदी जिससे सधारी का हाल पूँछता, यही उत्तर पाता, कि "रोज़ अब तक तो या जाती थी, किन्तु आज नहीं हैं शायद अब कोई या जाय। पसेञ्जर ट्रेन दो जा चुकी, जगह कहीं कुछ भी न थी, एक फिर दोपहर को जायगी! मैंने कहा, कि रेल पर जाने से तो मैं पैदर ही जाना अच्छा समझता हूँ, भीड़ का मज़ा पा चुका हूँ, लोगो ने कहा, कि "रास्ते में आप को सवारी भी जरूर मिल जायगी" निदान श्री गणेश कह मैं तो वहाँ से चलता हुया। एक सेवक भी साथ हुश्रा, शप असबाब की गाड़ी के साथ हुए। जाड़ा बहुत कम हो गया था, क्योकि दस बजने वाला था, इसीसे यात्रा सुखद थी। जिधर दृष्टि जाती थी, सिवा डेरे खेमें के और कुछ नहीं दिखलाता था, राह में एक बुजुर्ग मर्देपीर मियाँ साहब मिले, जिनकी अवस्था यद्यपि अस्सी से ऊपर थी, तौमी हृष्ट पुष्ट और चलने में मुझसे तेज थे।

अंगरेजी एक मसलं है कि, "बूढ़े बड़े बतूनी होते हैं, तत्रापि यवन, किर दिल्ली निवासी, और न केवल बादशाही ज़माने, बल्कि लवाज़े में के लोग; जो कहीं कहीं एकाध अभी काल के गाल में जाने से बच रहे हैं। श्रारम्भिक सामान्य प्रश्नोत्तर के पश्चात वह लंगड़ी आँधी सी बह चले, मैं भी रास्ता काटने का अच्छा मन बहलाव पाकर प्रसन्न हुआ, क्योंकि वहाँ के कदम कदम का हाल वह बखूबी बतला सकते थे, फिर न केवल वर्तमान, वरञ्च उसके पूर्व और कहीं कहीं उसके पूर्व का भी। किन्तु उनकी थोड़ी ही बातें सुन कर मुझे खेद होने लगा, कि-क्या कहें कि इन बातों के सुनने के अधिकारी संसार में केवल साढ़े तीन मनुष्य थे, जिनमें से यहाँ एक भी नहीं हैं। अर्थात प्रथम तो हास्टर हस्टर, वा राजा शिवप्रसाद, जो सुन कर

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