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प्रेमघन सर्वस्व

अपने अपने भारतीय इतिहासों को कुछ अधिक सुधार वा संवार सकते थे। तीसरे लार्ड कर्जन, कि जो अपने दरबार पर विचार कर सकते हैं। और आधे में हमारे वह मिर्जापुरी बाबू साहेब जिनके रेल के व्याख्यान का बखान मैं कर चुका हूँ, क्योंकि वह भी बहुत कुछ शिक्षा लाभ कर सकते, अथवा कुछ दूषण दे सकते थे। इस लिये कि अल्ला नब्बे वर्षे का हाल तो उक्त मियाँ साहिब अपनी आँखों देखा बयान करते और शेष अपने दादा से सुना सुनाया; जो एक सौ पन्द्रह वर्ष के हो कर उनके छुटपन में संसार को छोड़ सके थे। निदान औरङ्गजेब के इश्वर का इन्हें रोज़नामचा कहना चाहिये, अथवा दिल्ली रूपी गाँव का पैदाइशी खसरा।

अस्तु अनेक बातों के पीछे मैंने उनसे इतना ही पूछा, कि कहिये दरबार की कैसी तैयारी हो रही है? बस, इतना जबान से निकलना था, कि सुनते ही आप तो हो गये बूढ़े से जवान! तन तन कर लगे कहने, कि "लाहौलबला कबत! भला यः भी कोई दरवार है! हाँ, रियाया और असा के बर्बादी का बायस तो जरूर है। नहीं तो जनाब! दरबार में रुपये खर्च होते हैं: यो ज़बानी जमाखची में कहीं दार शोड़ी हुया करता है। मैंने अगले बादशाहों के बहुत सारे दार खुद देखे और उनके मुफस्सल हालात भी सुने हैं। जो दरबार महज़ शाही सालगिरह, नौ रोज, या ईद के होते, उनमें भी पोहच कर लोग मालामाल हो जाया करते थे, और तख्तनशीनी के दर्बार का तो फिर कहनहीं क्या है।

महीनों पेश्तर से राग रंग शुरू हो जाता। बड़े बड़े जलसे और जश्न होते, दूर दूरसे हरफ़न के उस्ताद और साहिबेकमाल बुलाये जाते; और जो माते, हमेशा के लिये खुश खुर्रम और आसूदाहाल हो जाते थे, दर्वारियों को इनाम और अकराम तकसीम होते, खिलअत अता होती, मनसब, मर्तबे और जागीरों में इजाफा होता, माफ़ियाँ बखशी जाती और ग्राम खैरात बाँटी जाती; लोग मुद्दतों बल्कि पुश्तहापुश्त उस फ़ैज से ज़ियाव और फायदा रस रहते थे। मगर यहाँ तो कहीं कुछ भी नहीं, खर्च का तो कोई मदही नहीं! वही इधर उधर से कुछ 'फौज बुला ली गई, उसी का बेढुंगाबाजा बज गया, लाट साहिब श्रा वैठे और खड़े होकर कुछ कह यह दिये, सामाय मुजरा हुआ। बस, एक एक बीड़े बज़ारू बदज़ायका पान के लीजिये और चुपचाप रक्तकर हूजिथे। सो यह भी सलीका तो इन्हें ह्याँ आने में