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दिल्ली दरबार में मित्र मण्डली के यार

हुआ, वर्ना ये बिचारे इन बातों को कब जानते थे। यह तो फ़कत लड़ना भिड़ना, कल कारखानों का चलाना, और हजरत सलामत! हर सूरत से रूपा पैदा करना अलबत्ता खूब जानते हैं। शानो शौकत और ऐशो इशरत की बातें ये क्या जाने। दरहक़ीकत आदमियत नौ सुहलियत तो इन फरंगियों में अभी बहुत ही कम है। तहज़ीब और तकल्लुफ़ तो मुतलक जानते ही नहीं। देखिये न इनकी लिबास, पोशाक और चाल चलन हरवक्त सियाहपोश, मैं में लकी लगाये, हरकारों की तरह दौड़ते। बकौल दस्तार, गुप्तार, रफ्तार, तान में से एक का भी सलीका नदारद। आगे नागुफ़्तान्नः। दिल बहलाव के लिये गेंद और अंडा गुड़ गुड़ खेलते। अखुदा आपको शायद यकीन न आयेगा, मैंने अपनी आँखों से इन्हें बोड़ों पर चढ़े गेंद खेलते देखा है। भला बतलाइये, आखिर तो जानवर ही टैरा, अगर खुदा न ख्वास्ता कहीं पैर फिसल गया, तब तो बस सब शेखी घुस गई, फिर कहिये तो, यह कौन सी इन्सानियत है? जमीन पर भी जो गेंद खेलते, वह न जाने काठ का होता है, या किसका; कि अगर कहीं सर में लग पड़े, तो जुब नहीं कि खोपरी टूट जाय! और, अफ़सोस तो इसपर आता कि हमारे मुल्कवाले भी अब इन्हीं को तक़लीद करने लग पड़े।

नाच तमाशे का जहाँ काम आता ह्वाँ एक दूसरे की बीबियों को साथ ले लेकर ये खुद ही नाच भी लेते और वहीं अपना उजड्डी फ़ौजी बम्पारन बाजा बजाते हैं। नाच में इनके न तो कोई गत है, न तोड़ा, न कोई पैर बाज़ी। घुघुरुओं के बाज की कारीगरी और पेशवाज़ वगैरह का तो खैर ज़िक्र ही क्या रहा। बस! शराब के नशे में बदमस्त हो होकर बन्दरों की तरह उछल कूद करते और जूतियों की खटा स्वट के साथ किलकिला किल किला कर ऐसा शोर मचाते कि तंग कर रखते हैं। बीवियाँ भी इनकी को नकली आवाज़ में खुदा जाने क्या गाती हैं कि जो बजाय तबीअत खुश करने के एक अजीब किस्म की बहशत और घबराट, पैदा करती हैं। गाने में विनके न तो कोई राग और न रागिनी,न लयदारी या तान और गिटगिरी वगैरः भाव और बतलाने समझाने की तो बात ही अलग रही। जो नाज़ और नखरे दिखलाती वह भी निहायत नाकाबिल बरदाश्त और परले सिरे के भोंडे होते, मगर इसको क्या कीजिऐगा कि अब उनकी हुकूमत के सबब खुशामद से लोग विनकी सबी बातों की तारीफ करते हैं, कोई हिन्दी साज