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प्रेमघन सर्वस्व

शाखाओं की भी चिन्ता छोड़िये क्या एक सम्प्रदाय में भी परस्पर प्रेम है? कहीं चार मन्दिर के महन्थ अथवा एक गुरु के चेले भी कभी अपने उस मत के उन्नति या सुधार का उपाय करने में सन्नद्ध हुए दीखते है? हाँ यदि उनके गुरू चाहें तो चेले नहीं नहीं करेंगे, पर क्या आपने कभी स्वप्न में भी सुना, कि ये गुरुगोस्वामी वा महन्त अपने से कैसेहू बड़े महात्मा से कभी मिलने गये हैं? का कभी जा सकते वा कहना मान सकते, अथवा सर्वथा अपने ही हित की भी बात सुन सकते है? वा कभी किसी सुधार के अर्थ यत्नवान होते, वा हो सकते हैं? और कदाचित् सौ में एक हुए भी तो क्या उसका कुछ प्रभाव समस्त सम्प्रदाय पर पड़ सकता है। जाति के जत्थों की भी यही दशा है, घर घर और प्राणी प्राणी बैर और फूट के अजीणं से बात है हमारे यहाँ सदा से धार्मिक सामाजिक आदि सबी विषयों के संरक्षक स्वदेशीय आर्य राजा और ब्राह्मण लोग थे। दुर्भाग्य से वे दोनों अधिकारच्युत हो गये; दोनों का शासन अब भारतीय प्रजा पर नहीं है। यदि कहीं कहीं कुछ है भी तो वह केवल नाम मात्र के लिये राज्यशासन चिर दिन से विदेशी विधर्मियों के अधिकार में और धर्म शासन विविध सम्प्रदायिक गुरुघण्टालों के अधिकार में है। समाजिक विषय के कुछ अंश केवल छोटी ही जातियों के मध्य उनकी पञ्चायतों के आधीन है। ब्राह्मण क्षत्रियों में वह भी नहीं। इस प्रकार ऐसी कोई युक्ति अब कहीं से दृष्टि गोचर नहीं होती कि जिससे यथेष्ट ऐसे ऐसे सुधारों के सुगमता से होने की आशा हो सके, वा जिससे एकता की झलक झलके, वा समूह के किसी एक अनुष्ठान में भी यथायोग्य तत्परता हो सके? फिर भला ऐसे दुर्दाशाग्रस्त जाति के हित की आशा केवल ईश्वर ही के अनुग्रह पर न छोड़ कर और कौन से उपाय से हम कर सकते हैं?

कुछ दिनों से उन्हीं पश्चिमीय विद्याविशारदों अथवा उन्हीं के सन्तोषार्थ कई नवीन समाज भी गठित हुये है, जैसे ब्राह्म समाज, प्रार्थनासमाज, आर्यसमाज, सुधारसमाज आदि, परन्तु वे समाज केवल धर्मविश्वास बिहीनों ही को अपने में मिला सके, और विशेषतः धर्म ही से सम्बन्ध रख एक भिन्न धर्म समाज बन सब से पृथक होकर प्राचीन सब दलों के विरोधी बन गये, एवम् जो कुछ उनमें समाजिक संशोधन भी हुआ वह केवल उसी समाज के अन्तर्गत, न कि अनेक अन्य जाति और समाज के समूह में यों ही