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हमारे धार्मिक, सामाजिक वा व्यावहारिक संशोधन

अनेक अनर्गल व्यर्थाचरण और आन्दोलनों के कारण समस्त अन्य समूह से घणास्पद और परम निन्द्य माने गये। योहीं जब तक उनके नेता वा मूलसंस्थापक जीते रहे, कुछ कुछ कोलाहल और कार्य कर सकें, परन्तु उनके पीछे वह भी एक विशेषसंशासम्पन्न सामान्य समूह मात्र रह गये और जैसे भारत में सहस्रों मत के लोग थे, वैसे ही दो चार मत वाले ये भी बढ़ गये, वरंच सर्व सामान्य आर्य सन्तान इन्हें यों अनुमान करने लगे कि जैसे चार विधर्मी परदेशी थे, वैसे ही चार स्वदेशी भी हो गये। इन समाजों से विशेष लाभ लोग यही बतलाते हैं, कि बहुतेरे लोग किस्तान होने से बचे, यद्यपि भारत में क्रिस्तानों की वृद्धि इस कारण नहीं हुई है कि लोग ईसाई धर्म पर विश्वास करके कृस्तान हुये हैं वरञ्च भूख के मारे और आनाथ होकर; अतः यह लाभ भी केवल नाममात्र अथवा अत्यन्त न्यून ठहरेगा, तौभी जो आचार विचार की हीनता अथवा हानि उनके क्रिस्तान होने से होती कदाचित् इनमें कुछ न्यून हो। जो दुराग्रह उनको हमारे साथ रहता है कदाचित् ही इनमें कुछ न्यून हो; हमको जो सम्बन्ध उनसे था, कदाचित् ही कुछ न्यूनाधिक इनसे है क्योंकि यों तो भारतीय किस्तान भी अँगरेज़ों से अधिक ही सहानुभूति हमसे प्रकाशित करते है। फिर आप ही सोचिये कि ऐसे समाजों से इस विशाल आर्यवंश का क्या उपकार सम्भव है? वरञ्च सब से अधिक हानि इनसे यह हुई है कि अब जो सुशिक्षित युवक प्रतिवर्ष पाठशालाओं से निकलते हैं उनमें अधिकांश सुकुमार बुद्धि, जिनके मस्तिष्क मैं अँगरेज़ ग्रन्थकर्ताओं के उपजाये स्वधर्म विश्वास-हास, और पश्चिमीयसभ्यता के उल्लास के मनसूबे भर रहे हैं, मानों ये सब समाज' उन्हें कार्यक्षेत्र बन गये हैं। जिन्हें जितने प्रमाद की। जी हाथ लंगी वे उतने ही आगे बढ़ते, और अपने संग-दोष से औरों को भी लेते, तथा एक साथ स्वधर्म, कुल, परिवार, समाज और सम्प्रदाय के बैरी बन जाते और कोइल के बच्चे के समान चट अपने समुदाय में मिल जाते हैं, और जिन्हें अँगरेज़ी विद्या का पूर्ण स्वाद मिला वे तो इन्हें भी अन्धा ही अनुमान करते, और ईश्वर परलोक वा धर्म कर्म का नाम सुनना भी सह्य नहीं कर सकते!!!

आज यदि हमारे पश्चिमीय विद्याविशारद नवीन-ज्योति-धारी युवव समूह चमकीले पीतल के झूठे गहने और भड़कीले गिलट के बरतनों के समान केवल ऊपरी तड़प झड़प रखने वाली पश्चिमीय सम्यता पर मोहित मय हो